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अ० १८ : सजयीय
११७ विपुल राज्य फिर सेना, वाहन, उत्तम भोगो को तजकर ।।
महापद्म चक्री ने भी तप का आचरण किया सुन्दर ॥४१॥ परि-मद-मर्दन एक-छत्र, पृथ्वी पर करके राज्य महान ।
हरिषेणाऽभिध मनुजाधिप ने प्राप्त किया वर मोक्ष-स्थान ॥४२॥ 'एक हजार नृपो सह जय नामक चक्री वैभव तजकर ।
जिन-भाषित दम का आचरण किया, फिर मुक्त बने नरवर ॥४३॥ प्रमुदित-राज्य, दशार्ण देश का छोड़, दशार्णभद्र नृपवर 1 .
साक्षात्-शक्र-प्रप्रेरित घर से निकल वना, वह श्रमण प्रवर ॥४४॥ करकंडू भूपति कलिंग मे द्विमुख भूप- पाचाल देश मे ।
नमि नृप हुआ विदेह देश मे नग्गति नृप गाधार देश मे ॥४५॥ ये नृप वृषभ सभी अपने पुत्रो को राज्य-भार देकर ।
जिन शासन मे हुए प्रव्रजित श्रमण-धर्म मे नित तत्पर ॥४६॥ उद्रायण सौवीर, राजवृष, सर्व राज्य वैभव तजकर ।
दीक्षा ले, मुनिवृत्ति पाल कर, उत्तम गति पाए सत्वर ॥४७॥ त्यो ही काशी नृप ने श्रेय सत्य-हित किया पराक्रम घोर । , कर्म महावन का उन्मूलन किया, भोग, वैभव को छोड़ ॥४८॥ 'त्यो ही महा यशस्वी विमल कीर्ति वाले नप विजय प्रधान ।
गुण समृद्ध राज्य तज, जिनशासन मे दीक्षित हुए महान ॥४६॥ त्यो फिर अव्याक्षिप्त चित्त से उग्र तपस्या कर घुतिमान ।
महाबलाभिध, राज ऋषीश्वर पाए सिर दे, शीर्ष-स्थान ॥५०॥ कुहेतुओं से नर उन्मत्त भांति कसे चल सकते. भू पर ।
इस विशेषता से वे दीक्षित हुए वीर दृढ पराक्रमी नर ॥५१॥ अतीव युक्ति-युक्त यह मैंने बात कही है सत्य-उजागर ।
तिरे तिरेंगे तिरते इसके द्वारा कई मनुज भव-सागर ॥५२॥ अहेतुवादो मे अपने को धीर पुरुष किस तरह लगाए।
सब सगो से मुक्त, कर्म-रज विरहित होकर सिद्ध कहाए ॥५३॥