Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 171
________________ ० २६१ सामाचारी . प्रशिथिल प्रलम्ब लोल व एकामर्गा अनेक रूप धूनना । प्रमाण मे करना प्रमाद शंका होने पर गिनती करनी ॥ २७ ॥ अनतिरिक्त अन्यून व अविपरीत प्रतिलेखन है कर्तव्य । प्रथम विकल्प प्रशस्त शेष सातों पद प्रशस्त ज्ञातव्य ॥ २८ ॥ * प्रतिलेखना में काम - कथा करता फिर जनपद कथा । कभी । प्रत्याख्यान कराता पढ़ना स्वयं, पढाना, दोष सभी ॥ २६ ॥ प्रतिलेखन मे जो प्रमत्त होता है वह षटकाय - विराधक । पृथ्वी, पानी, तेजस्, मारुत, हरित व त्रस जोवो का घातक ॥३०॥ [ प्रतिलेखन मे अप्रमत्त, होता षट् कायो का आराधक । } भू, प्, अग्नि, समीर, हरित, त्रस जीव- गणो का नही विराधक ॥ ] 1 f = - छहों कारणों मे से कोई एक उपस्थित होने पर । अन्न-सलिल की करे एषणा प्रहर तोसरे मे मुनिवर ॥ ३१ ॥ क्षुधा शान्ति हित वैयावृत्य व ईर्या हित संयम-हित रोज । जीवित रहने हित व धर्म-चिन्तन हितं करे अशन की खोज ||३२|| 1 11 *१५३ ' 1 - धैर्यवान साधु व साध्वी गण ये, छह कारण होने पर । सयम अनितिक्रमण - हेतु, न करे भोजन की खोज प्रवर ॥ ३३॥ - आतङ्कोपसर्ग मे ब्रह्मचर्य - रक्षा के लिए श्रमण । जीव-दया तप हेतु व तन-विच्छेद हेतु न करे भोजन ||३४|| 7 1 - सर्व उपधि पात्रो को लेकर देख चक्षु से कर प्रतिलेखन । : अधिकाधिक आधे योजन तक भिक्षा के हित जाए शुभ मन ||३५|| - 1 - तूर्य प्रहर मे प्रतिलेखन पूर्वक पात्रो को बांध रखे नित । फिर वह सर्व भाव-भासक स्वाध्याय करे हो एकान्त स्थित ॥ ३६ ॥ - तूर्य प्रहर के तूर्य भाग में मुनि स्वाध्याय - विरत होकर । गुरु-वन्दन कर शय्या का प्रतिलेखन करता तदनन्तर ॥३७॥ -यत्नशील उच्चार-प्रस्रवण- भू की प्रतिलेखना करे । तदनन्तर सव दु.ख विनाशकं सुखकर कायोत्सर्ग करे ||३८|| दिवस सम्बन्धी अतिचारो का क्रमश चिन्तन करे मुनि । दर्शन ज्ञान चरण मे लगे हुए दोषो को हरे गुणी ॥ ॥३६॥

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