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उत्तराध्ययन है पृथक्त्व, एकत्व व सख्या और सभी संस्थान सही।
पर्यायों के लक्षण ये सयोग विभाग कहे सब ही ॥१३॥ जीव अजीव पुण्य पापाश्रव संवर और निर्जरा जान।
बन्ध मोक्ष ये है नौ तत्त्व इन्हे तू भलीभांति पहचान ॥१४॥ इन सब तथ्य भाव सद्भाव-निरूपण मे जो अन्त.स्थल से ।
श्रद्धा करता है सम्यक्त्व, उसे होता, सुकथित प्रभुवर से ।।१५।। निसर्ग रुचि, उपदेश व आजा, सूत्र, बीज, अभिगम रुचि है। .
फिर विस्तार, क्रिया, सक्षेप तथा फिर समझ धर्म-रुचि है ॥१६॥ आत्म-जन्य यथार्थ ज्ञान से जीव-अजोव पुण्य फिर पाप ।
आश्रव सवर पर श्रद्धा करता वह निसर्ग-रुचि है साफ ॥१७॥ अर्हद्-दृष्ट चतुर्विध , से तत्त्वो पर रखे स्वयं विश्वास। . , एवमेव अन्यथा नही, ज्ञातव्य निसर्ग-रुचि वही खास ॥१८।। उपर्युक्त भावों को जिन या छद्मस्थो से सुन मतिमान। .
उन पर श्रद्धा करे उसे उपदेश-रुचि कहा है पहचान ॥१६॥ राग, द्वेष तथा अज्ञान व मोह दूर हो जाने पर।
वीतराग की आज्ञा मे रुचि रखता वह आज्ञा-रुचिवर ॥२०॥ अंगवाह्य या अगप्रविष्ट सूत्र को पढ़ता- हुमा सुजान ।
जो पाता सम्यक्त्व उसी का नाम सूत्र-रुचि है पहचान ॥२१॥ एक तत्त्व से , अनेक तत्त्वो में फैलता यहाँ सम्यक्त्व। . . . जल मे तैल-बिन्दु की ज्यो सम्यक्त्व बोज-रुचि है ज्ञातव्य ॥२२॥ ग्यारह अंग, प्रकीर्णक, दृष्टिवाद आदिक आगम- शुचि है।
अर्थ-सहित है श्रुतज्ञान जिसको, वह नर अभिगम-रुचि है ॥२३॥ सभी प्रमाण व सब नय विधियो से द्रव्यो के सभी भाव फिर ।
है उपलब्ध जिसे वह कहलाता विस्तार-सुरुचि वाला नरः॥२४॥ दर्शन ज्ञान चरण-तप विनय सत्य समिति व गुप्ति मे जान । . . क्रिया भावरुचि है जिसकी वह क्रिया-सुरुचि सम्यक्त्व महान ॥२५॥ अनभिगृहीत कुदृष्टि व जिन-प्रबचन अविशारद परम शुचि । , . परमत अज्ञ व स्वल्प ज्ञान से श्रद्धानत सक्षेप-रुचि ॥२६॥