Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 184
________________ १६६ उत्तराध्ययन परलाभाऽऽस्वादन व कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना, आशा तजकर। श्रमण दूसरी सुख-शय्या धारण कर विहार करता भू पर ।८।। उपधि-त्याग से प्राणी क्या फल पाता है भगवन् ! सुखकर ? ___ इससे वह स्वाध्याय-ध्यान की क्षति से बच जाता है नर ।।२।। उपधि-रहित मुनि अभिलाषा से विरहित होकर सुख पाता। नही उपधि के अभाव मे मानसिक दु ख को अपनाता ॥८३॥ भगवन् प्रशन-त्याग से क्या फल मिलता प्राणी को अनवद्य । इससे जीवित रहने की लालसा-छेद देता है सद्य ।।८४॥ जीवित-आशा के प्रयोग से जब विमुक्त वह हो जाता है। ___ तब भोजन के बिना श्रमण, सवलेश न किचित् भी पाता है ।।८।। पूज्य ! कषाय-त्याग' से क्या फल ? इससे बीतरागता मिलती। वीतराग होने पर सुख-दुख मे समता की बाडी खिलती ॥८६॥ योग-त्याग से क्या फल मिलता? इससे मनुज अयोगी बनता । नये कर्म फिर नही बाँधता, पूर्व बद्ध कर्मो को धुनता ॥७॥ पूर्ण शरीर-त्याग का क्या फल प्राणी को मिलता ? गुरुदेव । देह-त्याग से सिद्धातिशय गुणो को पा जाता स्वयमेव ॥८॥ सिद्धातिशय-सुगुण-संप्राप्त जीव लोकाग्र पहुँच पाता। लोक-शिखर पर पहुच वहाँ फिर परम सुखी वह बन जाता ॥८६॥ सहाय-त्याग क्रिया का क्या फल ? इससे मिल पाता एकत्व । फिर एकत्वाऽऽलम्वन का करता अभ्यास हुआ वह सत्व ॥१०॥ शब्द कलह झझट कषाय तू-तू से होता मुक्त तत. ॥ सयम-सवर-बहुल व समाधिस्थ हो जाता श्रमण स्वत. ॥११॥ भगवन् ! भक्त-त्याग से किस गुण को यह जीव प्राप्त करता? भक्त-त्याग से बहुत सैकडो जन्मो का रुन्धन करता ॥२॥ हे भगवन् ! सद्भाव-त्याग से प्राणी किस फल को पाता? वह सद्भाव-त्याग से झट अनिवृत्ति करण को अपनाता ॥३॥ मुनि अनिवृत्ति-करण-सप्राप्त, चार कर्मों का करता क्षय । यथा कि वेदनीय आयुष्य व नाम गोत्र का पूर्ण विलय ॥१४॥

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