Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 187
________________ अ० २६ : सम्यक्त्व- पराक्रम १६६ तदनंतर वह सिद्ध-बुद्ध परिमुक्त यहाँ बनता है संत । परिनिर्वाण प्राप्त होता है सब दुखो का करता अन्त ॥ १२३ ॥ पूज्य ज्ञान की सपन्नता" जीव को क्या फल देती है ? वह सव भावो का रहस्य प्राणी को बतला देती है ॥ १२४ ॥ जीव ज्ञान की सपन्नता प्राप्त कर पूर्ण विज्ञ होता । फिर चतुरंत विश्व - कानन मे अपने को न कभी खोता ॥ १२५ ॥ स-सूत्र सूई गिरने पर भी ज्यो गुम होती कभी नही । त्यो स-सूत्र प्राणी ससृति मे होता कभी विनष्ट नही ॥ १२६ ॥ ज्ञान विनय तप और चरण के योगो को फिर वह अपनाता । स्वपर समय की व्याख्या, तुलना मे प्रामाणिक माना जाता ॥ १२७ ॥ दर्शन - सपन्नता" जीव को क्या फल देती है ? भगवन् ! इससे वह भव-भ्रमण हेतु मिथ्यात्व - छेद देता शुभ मन ॥ १२८ ॥ फिर उसकी बुझती न प्रकाश - शिखा, निज को सयोजित करता । परम ज्ञान दर्शन से सम्यक् भावित करता हुआ विचरता ॥ १२९ ॥ चरित्र - सपन्नता" जीव को क्या फल देती है ? भगवन् इससे वह शैलेगी दशा प्राप्त कर लेता शीघ्र श्रमण ॥ १३०॥ तत केवली -सत्क चार कर्मो को करता क्षीण तुरन्त । सिद्धबुद्ध निर्वाण मुक्त हो सब दुखो का करता अन्त ॥ १३१ ॥ भगवन् । श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से क्या जीव प्राप्त है करता ? इससे प्रिय प्रिय शब्दो मे राग-द्वेप का निग्रह करता ॥ १३२॥ शब्द-जन्य वह राग-द्वेषोत्पन्न कर्म फिर नही बाँधता । पूर्व वद्ध कर्मो को करता क्षीण, स्वय को सतत सावता ॥ १३३ ॥ भगवन् 1 लोचन - इन्द्रिय" के निग्रह से जीव प्राप्त क्या करता ? इससे प्रिय प्रिय रूपो से राग-द्वेष का निग्रह करता ॥ १३४॥ रूप-जन्य वह राग-द्वेषोत्पन्न कर्म फिर नही बांधता | पूर्व-वद्ध कर्मों को करता क्षीण, स्वय को सतत साधता ॥ १३५ ॥ भगवन् । घ्राणेन्द्रिय" के निग्रह से फिर जीव प्राप्त क्या करता ? इससे प्रिय प्रिय गधो मे राग-द्वेष का निग्रह करता ॥ १३६॥

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