Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 188
________________ १७० उत्तराध्ययन गंध-जन्य वह रॉग-द्वेषोत्पन्न कर्म फिर नही वांधता। पूर्व-बद्ध कर्मों को करता क्षीण, स्वय को सतत साधता ।।१३७।। भगवन् ! जिहन्द्रिय के निग्रह से फिर जीव प्राप्त क्या करता? इससे प्रिय-अप्रिय रस मे वह राग-द्वेष का निग्रह करता ।।१३।। रस-सबधी राग-द्वेषोत्पन्न कर्म फिर नही वाँधता। पूर्व-वद्ध कर्मो को करता क्षीण, स्वयं को सतत साधता ।।१३।। भगवन् ! स्पर्नेन्द्रिय का निग्रह से फिर जीव प्राप्त क्या करता ? इससे प्रिय-अप्रिय स्पर्शो मे राग-द्वेष का निग्रह करता ॥१४०॥ स्पर्श-जन्य वह राग-द्वेपोत्पन्न कर्म वह नही बांधता। पूर्व-बद्ध कर्मो को करता क्षीण, स्वयं को सतत साधता ।।१४१॥ क्रोध-विजय से क्या फल मिलता ? इससे क्षमा धर्म को धरता। क्रोध वेदनीय कर्म को न बाँधता पूर्व-बद्ध अव हरता ।।१४२ मान-विजय से क्या फल मिलता? इससे मृदुता को स्वीकरता । ___ मान वेदनीय कर्म को न वाँधता, पूर्व-बद्ध अघ हरता ॥१४३।। कपट-विजय" से क्या फल मिलता ? इससे ऋजुता को स्वीकरता। कपट वेदनीय कर्म को न बाँधता, पूर्व-वद्ध अघ को हरता ॥१४४॥ लोभ-विजय से क्या फल मिलता? इससे सतोषी वह बनता। लोभ वेदनीय कर्म को न बाँधता, पूर्व-बद्ध अघ को धुनता ॥१४५।। प्रेम-दोष-मिथ्यादर्शन-जय से भगवन् ! प्राणी क्या पाता? इससे ज्ञान चरण दर्शन आराधन मे तत्पर हो जाता ॥१४६।। कर्माष्टक मे कर्म-ग्रन्थि खोलने हेतु लाता तत्परता । क्रमश. अट्ठाईस प्रकार मोह का प्रथमतया क्षय करता ॥१४७।। जानावरण व अन्तराय की पाँच-पाँच, दर्शन की नौ है। इन तीनो कर्मों की सर्व प्रकृतियाँ युगपत् करता क्षय है ॥१४८॥ तत. अनन्त अनुत्तर निरावरण वितिमिर परिपूर्ण महान । विशुद्ध लोकालोक-प्रकाशक पाता केवलदर्शन ज्ञान ॥१४६।। जब तक श्रमण सयोगी होता तब तक ईयाँ-पथिक कर्म का । होता सुख स्पर्शवाला दो समय स्थितिक वह वध कर्म का ॥१५०।।

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