________________
मनुव्ह सचिवाचन चि अति बल खल हो जाता है। है ॥७०
अ० २६. सम्यक्त्व-पराक्रम
१६५ सयम से किस फल की भगवन । होती है सप्राप्ति यहाँ ?
संयम से आश्रव का वह निरोध करता, यो स्पष्ट कहा ॥६७॥ भगवन् । तप से किस फल को करता है जीव यहाँ सप्राप्त ?
तप से पूर्वाजित कर्मों को कर देता है शोघ्र समाप्त ॥६८।। गुभ व्यवदान क्रिया से भगवन ! प्राणी क्या फल पाता है ?
इस व्यवदान क्रिया से वह अक्रियावान वन जाता है ॥६६॥ मनुज अक्रियावान सिद्ध फिर बुद्ध, मुक्त हो जाता है।
होता परिनिर्वाण अन्त सब दुखो का कर पाता है ॥७०॥ सुख की स्पृहा निवारण करने पर क्या जीव प्राप्त करता ? __ इससे विषयो के प्रति सद्य अनुत्सुक भाव प्राप्त करता ।।७।। जीव अनुत्सुक अनुकम्पा करने वाला होता उपशान्त ।
गोक-मुक्त हो क्षय वरता चारित्र मोह को सहज प्रशान्त ॥७२॥ अप्रतिवद्धता से भन्ते ! किस फल को पाता जीव प्रवर ?
अप्रतिवद्धता से हो जाता वह असग, प्राणी सत्वर ॥७३॥ इससे मनुज अकेला हो एकाग्र-चित्त वाला है बनता।
वाह्य सग तज निशि-दिन वह प्रतिबध-रहित होकर सचरता ।।७४॥ भन्ते ! विविक्त-शयनासन-सेवन से जीव प्राप्त क्या करता?
विविक्त-शयनासन-सेवन से वह चारित्र सुरक्षित रखता ॥७॥ चरित्र-रक्षक, नीरसभुग, दृढ चरित्रवान, विजन-रत, त्राता ।
मोक्ष-भाव प्रतिपन्न अष्टविध कर्म ग्रन्थियाँ तोड गिराता ॥७६।। विनिवर्तना मनुज को भगवन् । क्या फल देती है बरतर?
इससे पाप कर्म करने मे जोव नहीं होता तत्पर ॥७७।। फिर पूर्वाजित पाप कर्म को क्षय कर देता तदनन्तर । ___गति चतुष्क भव-अटवी के उस पार चला जाता है नर ॥७॥ क्या फल मिलता है सभोग-त्याग" से प्राणी को ? गुरुदेव ।
इससे मानव परावलम्बन को तज देता है स्वयमेव ॥७९॥ निरावलम्बी के प्रयत्न सव होते मोक्ष-सिद्धि के खातिर।
वह स्वलाभ मे ही सतुष्ट बना रहता है श्रमण यहाँ फिर ॥५०॥