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उनतीसवाँ अध्ययन
सम्यक्त्व-पराक्रम भगवत्-प्रतिपादित मैंने यो यहा सुना आयुष्मन् ! निश्चय। -
यह सम्यक्त्व-पराक्रम नामाऽध्ययन इसे सुन होकर तन्मय ।।१॥ महावीर भगवान श्रमण काश्यप से जो कि प्रवेदित सुन्दर ।
जिसमे सम्यक् श्रद्धा दृढ कर तथा प्रतीति और रुचि रखक ॥२॥ स्पर्शन कर, स्मृति मे रखकर व हस्तगत कर व निवेदन कर ।
शोधन-धाराधन कर अर्हद् की आज्ञा से पालन कर ॥३॥ जीव अनेकों सिद्ध-बुद्ध होते हैं मुक्त शुद्ध अत्यन्त । _ वे निर्वाण प्राप्त करते हैं सब दु.खो का करके अन्त ॥४॥ कहा गया है उसका इस प्रकार से सम्यग् अर्थ यथा
है सवेग' और निर्वेद' व अटल धर्म-विश्वास तथा ॥५॥ गरु-सार्मिक की सेवा फिर आलोचना व निन्दा जान ।
गहीं सामायिक व चतुर्विंशति-स्तवना' वन्दन" पहचान ॥६॥ प्रतिक्रमण फिर कायोत्सर्ग तथा फिर प्रत्याख्यान"-वरण। स्तव-स्तुति-मंगल तथा काल-प्रतिलेखन, प्रायश्चित्त-करण ॥७॥ क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना", प्रतिप्रच्छन्ना, मोक्ष का साधन । · परावर्तना फिर अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, श्रुत का आराधन" ॥८॥ मनकी एकाग्रता व सयम, तप, व्यवदान, सुखेच्छा-त्याग"। अप्रतिवद्धता, विविक्त-शयनासन, फिर विनिवर्तना सुभाग ॥६॥ है संभोग-त्याग फिर उपधि-त्याग" है अशन-त्यागः सुखकार ।
कषाय-त्पाग योग का त्याग फिर शरीर-त्याग उदार ॥१०॥ सहायत्याग" भक्त-परित्याग" तथा सद्भाव" त्याग उत्कृष्ट ।
प्रतिरूपता" व वैयावृत्य सर्वगुण-सपन्नता" विशिष्ट ॥११॥
१ १ से लेकर ७३ तक की यह ऋमिक सख्या सम्यक्त्व-पराक्रम के अर्थाङ्गो की है ।।