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उत्तराध्ययन
प्रेषित करते हैं अपलाप, सर्वतः परिभ्रमण करते है।
नृप-बेगार मान करते हैं कार्य व मुंह मचोट लेते है ॥१३॥ दीक्षित शिक्षित उन्हें किया फिर भोजन-पानी से परिपष्ट ।
ज्यो कि पाँख आनेपर हस विविध दिशि में, त्यों फिरते दुष्ट ।।१४॥ खिन्न कुशिष्यो से होकर प्राचार्य सोचते हैं दुःखाकुल। । ___दुष्ट कुशिष्यो से क्या मुझे ? व मेरी आत्मा होती व्याकुल ॥१५॥ जैसे गलिगर्दभ होते है वैसे मेरे हैं कुशिष्य सब । इन गलिगर्दभ शिष्यों को तज, दृढ़ मन तप को ग्रहण किया तब ॥१६॥ मृदु मार्दव सम्पन्न महात्मा सुसमाहित गभीर महान ।
शील युक्त होकर पृथ्वी पर लगा विचरने वह मतिमान ।।१७॥