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उत्तराध्ययन
इस प्रकार उत्तम धुति और ऋद्धि से परिवृत वह उस बार । __ अपने खास भवन से निकला नेमि, वृष्णि-पुगव सुकुमार ॥१३॥ उसने जाते हुए वहाँ बाडो व पिंजरो मे अवरुद्ध ।
भय-सत्रस्त सुदु.खित प्राणी गण को देखा, जो थे क्षुब्ध ॥१४॥ मरणासन्न दशा को प्राप्त व आमिष-भोजन-हित रक्षित उन ।
जीवो को लख, महाप्राज्ञ ने सारथि से यो कहा व्यथित बन ।।१५। सुख की इच्छा रखने वाले ये निरीह है प्राणी सारे। __वाडो और पिंजरों में अवरुद्ध हुए हैं क्यों वेचारे ॥१६।। तब सारथि ने कहा तुम्हारे शुभ विवाह के अवसर पर ।
वहुजन-भोजनार्थ ये रोके गए भद्र प्राणी प्रभुवर ! ॥१७॥ उस सारथि का बहुत-प्राणी-गण नाशक वचन श्रवण कर अब ।
जीवो के प्रति सकरुण महाप्राज्ञ ने मन मे सोचा तब ॥१८॥ बहुत जीव ये मेरे कारण यदि मारे जाएगे आर्य !
तो परभव मे मेरे लिए न यह होगा श्रेयस्कर कार्य ॥१६॥ महा यशस्वी ने तब कुडले युगल और कटि-सूत्र अमोल ।
तथा सर्व आभूषण उस सारंथि को सौंप दिए झट खोल ॥२०॥ दीक्षा के परिणाम हुए जव सर्व ऋद्धि-परिषद सह देव । - - उसका अभिनिष्क्रमण महोत्सव करने को आए तमेव ॥२१॥ सुर-नर-परिवृत उत्तम शिविका मे प्रारूढ हुआ गुणखान ।
निकल द्वारका से रैवतक शैल पर जा पहुंचा भगवान ॥२२॥ सहस्राश्रमण चैत्य में जा उतरा उत्तम शिविका से तत्र ।
नर सहस्र सह अभिनिष्क्रमण किया, तब था चित्रा नक्षत्र ॥२३॥ अपने सुगन्ध-गधित मृदु कुचित केशो का तदन्तर ।
पाच मुष्टि से लोच किया स्वयमेव समाहित ने सत्वर ॥२४॥ लुप्तकेश व जितेन्द्रिय से तब कहा जनार्दन ने अनवद्य ।
अहो दमीवर इच्छित स्वीय मनोरथ प्राप्त करो तुम सद्य ॥२५॥ ज्ञान और दर्शन चारित्र तपस्या क्षान्ति मुक्ति से नित्य ।
वढते रहो निरन्तर तुम, शिव-पथ पर हे हरिवंशाऽऽदित्य ॥२६॥