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उत्तराध्ययन सब जीवो मे दयानुकम्पी क्षान्ति-क्षम ब्रह्मव्रत धारी।
समाहितेन्द्रिय सयत तज सावद्य योग, विचरे अविकारी ॥१३॥ स्वात्म बलावल तौल, राष्ट्र मे विचरे समयोचित मुनि भव्य ।
भीम शब्द सुन हरि ज्यो निर्भय कुवचन सुन बोले न असभ्य ॥१४॥ कटु वचनो की करे उपेक्षा, प्रिय अप्रिय सव सहे प्रवर । ___कही न हो आसक्त, न चाहे पूजा, गर्हा को मुनिवर ॥१५॥ नाना अभिप्राय नर में होते हैं, करे नियन्त्रण उन पर ।
सुर नर तिर्यञ्चोत्थित भीषण भीषणतम दुख सहे भिक्षुवर ॥१६॥. विविध दुसह कष्टो से हो जाते खिन्न कई कायर नर । । किन्तु न दुख से व्यथित बने सयत ज्यो नागराज मोर्चे पर ॥१७॥ दश-मशक शीतोष्ण व तणस्पर्श, रोगो से तन घिर जाए। .
शान्त भाव से उन्हे सहे, मुनि पूर्वाजित रज कर्म खपाए ॥१८॥ राग-द्वेष-मोह को सतत छोड़ विचक्षण भिक्षु रहे नित ।
परीषहो को वायु-अकम्पित मेरु भाँति गुप्तात्म सहे नित ॥१६॥ निन्दा, स्तुति मे. अवनत उन्नत बने न सयत, विरत गुणी। . । - वह अलिप्त, आर्जव अपनाकर शिव-पथ पाता महा मुनि ॥२०॥ सहे अरति-रति को परिचय तज,-विरत आत्म-हित संयमवान।. ... । • अभय, अकिंचन, छिन्नशोक, परमार्थ-पद स्थित है गुणवान ॥२१॥ बीजादिक से रहित व महा यशस्वी ऋषियो द्वारा स्वीकृत । . विजनालय मे रहे, देह से सहे कष्ट त्रायी गुण-सभृत ॥२२॥ वह सद्ज्ञान-ज्ञान सप्राप्त, अनुत्तर धर्मोपचय आचारी।।
प्रधान ज्ञानी नभ मे रवि ज्यो दीप्तिमान होता यशधारी ॥२३॥ सयम-निश्चल, पुण्य-पाप को “खपा, सर्वत मुक्त बना । -- -
सिन्धु-तुल्य भवजल को तैर, समुद्रपाल मुनि सिद्ध वना ॥२४॥