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पहली में उद्यम उत्पादन शुचिः पार जान्य जार
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अ० २४.: प्रवचनमाता
१४५. पहली मे उद्गम उत्पादन-शुद्धि, एषण-जन्य अपर में। ___ करे चार दोषों का शोधन मुनि परिभोगेषणा समय मे ॥१२॥ अोध उपधि या औपग्रहिक द्विधा इन उपकरणों को दान्त ।
लेने रखने मे इस विधि का करे प्रयोग श्रमण उपशान्त ।।१३।। यत्नाशील द्विधा उपकरणो को आँखो से देख तदा ।
प्रतिलेखन व प्रमार्जन कर ले, रखे उन्हे मुनि समित सदा ॥१४॥
खेल, प्रस्रवण, शव, उच्चार, मैल, सघाण, उपधि, आहार ।
तथा अन्य उत्सर्ग-योग्य को यतना से परठे हर बार ॥१५॥ न आए, देखे न, फिर देखे, वहाँ आए नही । -
न देखे, आए तथा आए व देखे भी नहीं ॥१६॥ अनापात व असलोक परोपवातक जो न हो।
और अशुषिर, सम व अचिर अचित्त स्थडिल' स्थान हो ॥१७॥ विस्तृत, नीचे तक अचित फिर त्रस प्राणी बिल बीज विवर्जित ।
पुर अनिकट स्थल मे उच्चार आदि उत्सर्ग करे, गुण अजित ॥१८॥ कही गई हैं पांच समितियां ये सक्षिप्ततया सूखकर।
तीन गुप्तिया क्रमश. यहा कहूगा उन्हे सुनो यतिवर ।।१६।। सत्या, मृषा व सत्यामृषा, असत्यामृषा चतुर्थी जान । ___ मनोगुप्तियाँ चार कही हैं सुनो शिष्य घर ध्यान ॥२०॥ समारम्भ प्रारम्भ और संरम्भ प्रवर्तमान मन का ।
करे निवर्तन, यतनाशील, रखे नित ध्यान श्रमणपन का ॥२१॥ सत्या, मृषा व सत्यामृषा, असत्यामृषा चतुर्थी जान ।
वचन गुप्तियाँ चार प्रकार की कही हैं, समझो शिष्य सुजान ॥२२॥ समारम्भ प्रारम्भ और सरम्भ-प्रवृत्त वचन का सद्य ।
करे निवर्तन यतनाशील श्रमण पाले सयम अनवद्य ॥२३॥ उल्लघन व प्रलघन और ठहरने या कि बैठने मे।
पाच इन्द्रियो के व्यापार तथा फिर यहाँ लेटने मे ॥२४॥
समारम्भ क्यारम्भ वनराशसम्ध-भवत्त वचन का सच। ॥२