Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 167
________________ १४६ अ० -२५. यज्ञीय सलिलोत्पन्न कमल ज्यो जल से लिप्त न होता त्यों मुनिगण । ' भोंगों से नित रहे अलिप्त, उसे हम कहते हैं ब्राह्मण ॥२६॥ जो कि अलोल, मुधाजीवी, अनगार अकिंचन है 'मुनिजन । । अनासक्त है गृहि-जन मे, उसको हम कहते है ब्राह्मण ॥२७॥ [छोड़ पूर्व सयोग, ज्ञाति बान्धव को तज बना श्रमण । । उनमे फिर आसक्त न होता, उसको हम कहते ब्राह्मण ।।] 'पशु-वध-बन्धन हेतु वेद सब, पाप-हेतु सब यज्ञ रहे । __ कुशील के ये त्राण न होते, क्योकि कर्म वलवान कहे ॥२८॥ सिर-मुडन से श्रमण व अोम मात्र जप से ना ब्राह्मण होता । मुनि न अरण्य-वास से सिर्फ न कुश चीवर से तापस होता ॥२६॥ समभावो से होता श्रमण व ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से जान । ज्ञान-मनन से मुनि होता, तप से तापस होता गुणवान ॥३०॥ होता मनुज कर्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय होता । होता वैश्य कर्म से ही फिर शूद्र कर्म से ही वह होता ॥३१॥ इन्हें बुद्ध ने प्रकट किया इनसे स्नातक होता है जन । जो सब कर्म-मुक्त होता है उसको हम कहते ब्राह्मण ॥३२॥ इस प्रकार गुण-युक्त द्विजोत्तम जो दुनिया में होते हैं । निज का पर का समुद्धार करने में सक्षम होते हैं ॥३३॥ यो सदेह दूर होने पर विजयघोष ब्राह्मण ने आखिर । ___ भलीभांति जयघोष महामुनि की वाणी को समझा है फिर ॥३४॥ विजयघोष संतुष्ट हुआ, मुनि से कर जोड़ कहा उसने । _ यथार्थ ब्राह्मणपन का सुन्दर अर्थ मुझे समझाया तुमने ॥३५।। तुम यज्ञों के यज्ञ-विधाता तुम हो वेदो के विज्ञाता । __ज्योतिपाग विद् और धर्म के पारगत हो तुम व्याख्याता ॥३६॥ निजका पर का समुद्धार करने मे तुम्ही समर्थ यहां पर । अत. अनुग्रह तुम भिक्षा लेने का हम पर करो भिक्षुवर ॥३७॥ मुझे न भिक्षा से मतलब है तुम झट दीक्षा ग्रहण करो। भय-आवर्त घोर संसार-सिन्धु में अव मत भ्रमण करो ॥३८॥

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