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उत्तराध्ययना
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भोगों में होता उपलेप, प्रभोगो लिप्त नही हो पाता । भोगी जग में करता भ्रमण अभोगी विप्रमुक्त हो जाता ||३६|| गीला सूखा मिट्टी के दो गोले फेके गए भीत पर । उनमें जो गीला गोला था चिपक गया वह शीघ्र वही पर ॥४०॥
इस प्रकार दुर्बुद्धि काम ग्रासक्त चिपट जाते विषयों से । जो विरक्त से गोले सम, वे न चिपटते हैं विषयो से ॥४१॥ यों जयघोष श्रमण से उत्तम धर्म श्रवण कर महामना ।
व वह विजयघोष निज गेह छोड़ कर भट प्रव्रजित बना ॥ ४२ ॥
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तप सयम से पूर्वार्जित कर्मों को क्षय कर शुद्ध मति । विनयघोष जयघोष पा गए शीघ्र अनुत्तर सिद्धि - गति ॥४३॥