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उत्तराध्ययन
नर-भव सफल तुम्हारा, तेरी उपलब्धियां हुई सुसफलतर । तुम हो नाथ, सबांधव क्योकि जिनोत्तम-पथ में स्थित हो ऋषिवर ।।५।। तुम हो नाथ अनाथो के, सब जीवो के हो नाथ सुदीक्षित । __ क्षमा चाहता महाभाग ! तुम से होना चाहता सुशिक्षित ॥५६॥ मैंने प्रश्न पूछकर जो कि ध्यान मे डाला विघ्न अगाध ।
दिया निमत्रण भोगो के हित, क्षमा करो मेरा अपराध ॥५७।। परम भक्ति से राज सिंह, अनगार सिंह की कर स्तवना। __ अन्त.पुर परिजन बान्धव सह विमलचित्त धर्मस्थ बना ॥५८॥ रोम-कूप उच्छ्वसित नराधिप कर प्रदक्षिण मुनि की सत्वर ।
मस्तक झुका वन्दना कर फिर चला गया है अपने घर पर ॥५६॥ इधर त्रिदण्ड-विरत, मुनि गुण-समृद्ध त्रिगुप्ति-गुप्त भू पर ।
विहग भाँति वे विप्रमुक्त निर्मोह विचरने लगे प्रवर ॥६०॥