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अ० २० : महानिर्ग्रन्थीय
१२६० अस्थिर-व्रत, तप-नियम-भ्रष्टं जो चिर मुंडन मे रुचि रखकर भी। :चिर क्लेशित हो, वह संसृति का पार न पा सकता है फिर भी॥४१॥ पोली मुट्ठी, खोटे सिक्के की ज्यो अनियन्त्रित, गुणहीन। . - काच-चमक वैडूर्य-भाँति पर विज्ञ दृष्टि मे' मूल्य विहीन ॥४२॥ धार कुशील-वेष, ऋषि-ध्वज से जो निज आजीविका चलाता। । । ' हो असाधु, सयत कहलाता वह चिर विनाश को है पाता ॥४३॥ कालकूट विष पीना, उल्टा शस्त्र पकड़ना' ज्यो घातक है। ..]
विषय-युक्त त्योधर्म-ग्रहण भी अवैश-पिशाच भॉति नाशक है ॥४४॥ लक्षण, स्वप्न, निमित्त-प्रयोग करे, कौतुकासक्त अति रहता। . ___ कुहेट-विद्याश्रव-जीवी न किसी की शरण प्राप्त कर सकता ॥४५॥ वह अमाधु अति अज्ञ, कुशील सतत दुखी सयम खोकर । : ।' फिर वह तिर्यक् नरक योनि मे जाता मिथ्यात्वी होकर ॥४६॥ प्रौद्देशिक, नित्यान, क्रीत-कृत, अनेषणीय न छोड़े व्रतधर । ___अग्नि भाति सब भक्षी मर दुर्गति मे जाता अघ अर्जन कर ॥४७॥ दुष्प्रवृत्ति निज, कठ-छेद अरि से भी अधिक हानिप्रद सत्य ।
दयाहीन वह मृत्यु समय अनुशय-सह जानेगा यह तथ्य ॥४८॥ सयम-रुचि है व्यर्थ कि जिसकी उत्तमार्थ मे मति-विपरीत ।
इह-परलोक न उसका होता, भ्रष्ट उभयत क्षीण, सभीत ॥४६॥ ऐसे जो स्वछन्द कुशील जिनोत्तम-पथ से विचलित होते ।
भोग-रसो में गृद्ध गीध ज्यों व्यर्थ शोक-सतापित होते ॥५०॥ ज्ञान-गुणो से युक्त सुभाषित यह अनुशासन सुन धीमान । ___ सर्व कुशील मार्ग को तज निर्ग्रन्थ मार्ग मे चले सुजान ॥५१॥ चरिताचार गुणान्वित वर सयम का पालन कर तदनन्तर ।
निराश्रवी कर्म क्षय कर ध्रुव मोक्ष स्थल पाता वह मुनिवर ॥५२॥ महा प्रतिज्ञ, यशस्वी, उग्र दान्त व तपोधन उस मुनिवर ने ।
विस्तृत कहा इस महानिर्ग्रन्थीय महाश्रुत को व्रतधर ने ॥५३॥ तुष्ट ह्या है श्रेणिक नृप फिर हाथ जोड़ कर ऐसे बोला ।
सुष्टु अनाथ स्वरूप यथार्थ बता कर मेरा श्रुति-पट खोला ॥५४॥