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अ० २२ : रथनेमीय
केशव, राम, दशार तथा फिर अन्य बहुत से लोग सचोट । कर वन्दना ग्ररिष्टनेमि को आए पुरी द्वारका लौट || २७॥ जिनवर की दीक्षा को सुन, नृप कन्या हुई शोक से स्तव्ध । हास्यानन्द सभी खो बैठी, राजीमती हुई निःशब्द ||२८|| राजिमती ने सोचा है धिक्कार अहो ! मेरे जीवन को ।
उनसे परित्यक्त हू अब दीक्षा लेना श्रेयस्कर मुझको ||२६|| कूर्च, फलक से हुए सँवारे अलि सम केशो का चुपचाप ।
लुचन किया, धीर-कृत निश्चय राजिमती ने अपने श्राप ||३०||
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दमितेन्द्रिय लुचित - केशा से वासुदेव बोला उस वार ।
कन्ये । घोर भवोदधि को शीघ्रातिशीघ्र तर, जा उस पार ॥३१॥ बहुश्रुत शीलवती वह राजीमती वहाँ दीक्षित होकर ।
बहुत स्वजन परिजन को फिर प्रव्रजित किया उसने सत्वर ॥ ३२ ॥ वह रैवतक शैल पर जाती हुई वृष्टि से भीग गई ।
घन वारिस च अँधेरा था उस समय गुफा मे ठहर गई ॥३३॥
वस्त्रों को फैलाती हुई नग्न लखकर रथनेमि उसे ।
'भग्न चित्त हो गया कि फिर उसने भी देखा शीघ्र उसे ||३४|| वहाँ विजन मे एकाकी सयत को लख भयभीत हुई ।
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भुज- गुम्फन से वक्ष ढाँक, कापती हुई वह बैठ गई ||३५|| उसे कांपती डरती हुई देख नृपं-नन्दन ने उस बार । उस समुद्र विजयाङ्गज ने वचन कहा उससे श्रविचार ॥ ३६ ॥ भद्र' । चारु भाषिणि । सुरूपे । मैं रथनेमिः अतः मुझको ।
कर स्वीकार, सुतनु । न कभी कोई पीड़ा होगी तुमको ||३७|| आ, हम भोगे भोग, सुनिश्चित मनुज - जन्म है दुर्लभतम ।
सुचिर भुक्तभोगी वन, फिर जिन पथ पर कदम धरेंगे हम ||३८|| भग्नोद्योग पराजित रथनेमि को देख, संभ्रान्त नहीहुई, सती राजुल ने वस्त्रो से निज तन ढँक लिया वही ॥ ३९ ॥ फिर वह राजसुता नियम व्रत मे सुस्थित हो, उससे सद्य ।
३६॥
शील जाति कुल-रक्षा करते हुए कहा उसने अनवद्य ||४०||
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