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उतराध्ययने
मेरी ज्येष्ठ कनिष्ठ भगिनियों ने श्रम किया प्रतीवं प्रखर । दुःख - मुक्त कर सकीं न वे मेरी अनाथता यह नरवरें | ||२७||
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प्रति पल । वक्षस्थल ||२८||
सीच रही थी
पतिव्रता अनुरक्ता भार्या परिचर्या करती अश्रुपूर्ण नेत्रों से मेरा खाना पीना स्नान गंध माला व विलेपन को छोड़ा | मेरे से प्रज्ञात-जात में, उसने इनसे मुह मोड़ा ||२६||| निशि - वासर में वह मेरे से अलग न होती थी क्षण भर ।
दु.ख मुक्त कर सकी न वह, मेरी अनायता यह नरवर ||३०|| इस प्रकार तब मैंने कहा कि इस अनन्त संसृति में आखिर । बार-बार दुसह्य वेदना का अनुभव करना होता चिर ॥ ३१ ॥ .
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एक बार इस विपुल वेदना से यदि मुक्तं बनूं इस वार | तो मैं क्षान्त दान्त फिर निरारभ प्रव्रजित बनूं अनगार ||३२|| ऐसा चिन्तन कर सो गया नराधिप ! आँख मिली तत्क्षण |
निशा अन्त के साथ वेदना का भी अन्त हुआ राजन् ||३३॥ अरुज हो गया प्रात. तदा पूछ स्वजनो से मैं अविलम्ब ।
क्षान्त दान्त फिर निरारम्भ प्रव्रजित बना अनगार प्रदभ ||३४|| तदन्तर मैं अपना तथा अपर मनुजो का नाथ बना ।
त्रस-स्थावर सब जीवो का भी नाथ बना संयम अपना ||३५|| वैतरणी सरिता आत्मा है कूट शाल्मली तरू श्रात्मा ।
कामदुधा गौ, आत्मा मेरी नन्दन वन भी यह आत्मा ||३६|| सुख दुख की कर्त्ता व विकर्त्ता यह आत्मा है तुम जानो । सुप्रस्थित दुस्प्रस्थित मित्र अमित्र यही है पहचानो ||३७||
सुन मुझसे एकाग्र अचल बन अब अनाथ का अपर स्वरूप । कायर नर सयम ले, फिर हो जाते शिथिल अनेकों, भूप ॥३८॥
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घार महाव्रत, जो प्रमाद वश सम्यग् पाल नही सकता । अनियन्त्रित, रस- लोलुप, बन्धन की जड़ काट नही सकता ||३६|| ईर्या भाषैषणाऽऽदान निक्षेपोच्चार समितियों मे नर । सजग न रहता वह न वीर वर-पंथ का हो सकता है अनुचर ॥४०॥