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. १६ ..मगापुत्रीय कपड़े के थैले- को मारुत से भरना ज्यों कठिन-विशेष।
सत्वहीन नर से- त्यो श्रमण धर्म का पालन कठिन विशेष ॥४०॥ ज्योंकि कठिन है मेरु शैल का तकडी से तोला जाना।
निश्चल निर्भय होकर श्रमण धर्म का त्यो पाला जाना-॥४१॥ और भुजाओ से समुद्र को वहुत कठिन तैरना यथा ।
अनुपशान्त नर से त्यो ही दम-सागर को तैरना तथा ॥४२॥ मनुज सम्बन्धी पाँच इन्द्रियो के भोगो को भोग प्रवर। .
तत. भुक्तभोगी बनकर मुनिधर्म पाल लेना सुतवर ! ॥४३॥ “मात-पिता से कहा पुत्र ने कथन आपका बिल्कुल सत्य ।
. लेकिन निःस्पृह जन के लिए न कुछ भी कठिन यहा यह तथ्य।।४४॥ बार अनन्त मानसिक शारीरिक प्रति घोर वेदनाएं ।
सही अनेक बार दुख भय का अनुभव कहा नहीं जाए ॥४५॥ "चार अन्त वाले, भय-आकर जन्म-मरण मय जंगल में चिर।
जन्म-मरण के घोर दुखो को सहन किया बहुधा मैंने फिर ।।४६।। जैसे यहाँ उष्ण है इससे वहाँ अनन्त गुनाऽधिक जान ।
दुखमय उष्ण. वेदना सही नरक मे मैंने तात-! महान, ॥४७॥ "जैसे यहाँ शीत है इससे वहा अनन्त गुनाऽधिक जान ।
दुखमय शीत वेदना सही नरक मे मैंने तात ! -महान ॥४८॥ कुन्दु कुभियो मे नीचा शिर ऊर्ध्व पैर कर ज्वलित आग पर । __क्रन्दन करता हुआ पकाया गया अनन्त बार मैं पितुवर ! ॥४६॥ महा दवाग्नि वज्र बालुका मरुस्थल सदृश कदम्ब नदी को
बालू में, अनन्त बार- मैं गया जलाया, व्यथा बदीकी ॥५०॥ श्राण-रहित क्रन्दन करते को पाक-पात्र में बाधा ऊपर ।
करवत आरादिक से मुझको छेदा बार अनन्त वहाँ पर ॥५१॥ तीक्ष्ण कंटकाकीर्ण अतीव उच्च शाल्मलि के पादप पर। - , पाशबद्ध कर इधर-उधर खीचा, असह्य दुख था अति दुष्कर॥५२॥ अति प्राक्रंदन, करता बार अनन्त ऊख-ज्यो मैं पापी।
महा यन्त्र में पेरा- गया, स्व कर्मों द्वारा सतापी ॥५३॥