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चौदहवाँ अध्ययन इषुकारीय
पूर्व जन्म मे सुर हो एक यान से च्युत हो कई सिधाए । ख्यात पुराण समृद्ध स्वर्गसम, वर इषुकार नगर मे आए ॥१॥ पूर्व विहित अवशिष्ट कर्म से वर कुल मे उत्पन्न हुए सब ।
ससृति भय से खिन्न, भोग तज जिन-पथ शरणापन्न हुए सब ॥२॥ तत्र पुरोहित पत्नी यशा तथा फिर उभय कुमार मनस्वी ।
देवी कमलावती सुशीला नृप इषुकार विशाल' यशस्वीं ॥३॥ चित्त मोक्ष की ओर खिच गया, जन्म-मृत्यु भय त्रस्त हो गए ।
लख मुनि को भव - चक्र छेदने हित वे काम विरक्त हो गए ॥४॥ स्वकर्मशील पुरोहित के प्रिय उभय सुतो को जातिस्मरण तब ।
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हुआ कि जिससे पूर्वाराधित तप सयम को किया स्मरण तब ||५|| मनुज देव यौनिक भोगो से विरत हुए वे दृढ श्रद्धालु । मोक्षांकाक्षी तात-निकट " आकर यो कहने लगे कृपालुं ॥६॥ तात ! अशाश्वत जीवन, स्वल्प आयु जिसमे बहु विघ्न अनवरत । है न गेह मे सौख्य, अत मुनि वनने हित चाहते इजाजत ॥७॥ उन मुनियो से कहने लगा तात यो वचन तपस्या घातक । तो की होती न सुगति यो वेद - विज्ञ कहते हैं स्नातक ॥ ८ ॥
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वेद पाठकर ब्रह्म भोज़ कर नारीगण सह भोग भोग कर । ..पुत्रो को घर-भार सौप कर फिर बनना वनवासी मुनिवर ॥ ॥ श्रात्म - गुणेन्धन मोहानिल से शोक अग्नि प्रज्वलित अधिक है । तप्तभाव, फिर छिन्न हो रहा सुत-वियोग से हृदय अधिक है ॥ १० ॥
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क्रमश धन भोगो हित अनुनय करते हुए पुरोहित से । चिन्तनपूर्वक उभय कुमारी ने ये वाक्य कहे उससे ॥११॥ भोजित विप्र नरक ले जाते, अधीत वेद न होते त्राण । कथन आपका कौन मानता ? जब कि न सुत भी होते त्राण ॥ १२ ॥