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उत्तराध्ययन
क्षणिक मात्र सुख, बहुत काल दुख, सुख स्वल्पमान है।
संसृति-मोक्ष विपक्ष भूत ये निश्चित भोग अनर्थ खान है ॥१३॥ काम-अनुपरत मनुज रात-दिन, हो संतप्त भ्रमण करता है ।
बन प्रमत्त, पर-हित धन खोज-रक्त वह जरा-मरण वरता है ।।१४।। यह न पास मेरे है, यह है, यह करना व न करना ऐसे।
बकते नर को हरता काल, प्रमाद किया जाए फिर कैसे ?॥१५॥ नारीजन सह प्रभूत धन है स्वजन कामगुण भी पर्याप्त । .,
जिसके खातिर तप करते नर वे सब स्ववश तुम्हे है प्राप्त ॥१६॥ धर्म-धुरा वहने मे भोग स्वजन धन से क्या है मतलब? . . भिक्षाजीवी अप्रतिबन्ध. श्रमण गुणवान बनेंगे अब ।।१७।। यथा अरणि मे अग्नि, दुग्ध मे घृत व तिलो मे तेल असत है। , त्यो तन में ये जीव, पुत्र | तन साथ नष्ट होते, अवितथ है ॥१८॥ नित्य अमूर्त - भाव होने से इन्द्रिय-ग्राह्य न जीव रहा है। , , बन्ध हेतु आश्रव है, ससृति का कारण फिर बन्ध कहा है ॥१६॥ धर्म अज्ञ अवरुध्यमान रक्षित हम मोह वशंगत होकर। . . करते रहे पाप अब तक, पर अब न करेगे निज खोकर ॥२०॥ पीडित है यह लोक सर्वतः घिरा हुआ चौतर्फ दुख है। '
वह आ रही अमोघा, ऐसी स्थिति में घर पर हमे न सुख है ।।२१।। किससे पीडित है फिर किससे घिरा हुआ है यह ससार ।
किसे कहा है यहाँ अमोघा ? पुत्रो। चिन्ता मुझे अपार ॥२२॥ मृत्यु-प्रपीडित तथा जरा से घिरा हुआ इस जग को जानें । ..
यहाँ रात्रि को कहा अमोधा, तात! आप इस प्रकार मानें ॥२३॥ जो-जो रात्रि चली जाती है नही लौट कर वह आती है ।
अधर्म करने वाले नर की विफल रात्रियाँ हो जाती हैं ॥२४॥ जो-जो रात्रि चली जाती है नही लौट कर वह आती है ।
धर्म रक्त रहने वाले की सफल रात्रियाँ हो जाती हैं ॥२५॥ पहले घर पर ही सम्यक्त्व और श्रावक व्रत पालन कर । ।
फिर हम सब दीक्षा लेकर भिक्षा-हित जायेंगे घर-घर ॥२६॥