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अठारहवां अध्ययन
संजयीय था कापिल्य नगर मे, संजय नप, बल-वाहन से सम्पन्न । ... --
एक दिवस वह गया शिकार खेलने खातिर प्रमुदित मन ॥१॥ हय-गज-रथ-आरूढ़ महान सैनिकों द्वारा परिवृत था । .. .. ..
और पदाति चमू - से चासे ओर-भूपति वेष्टित था ॥२॥ कापिलपुर-केसर- उपवन मे सुभटो द्वारा क्षिप्त मृगों को । --- -
रस-मूछित, हय चढ़, नृप मार रहा था खिन्न सभीत मृगो को ॥३॥ उस केसर उपवन मे एक तपोधन मुनि अनगार महान। -- , वे स्वाध्याय-ध्यान मे लीन, ध्या रहे थे वे धर्म-ध्यान ॥४॥ लताकीर्ण-मडप मे ध्यान ध्या-रहे क्षपिताश्रव अनगार ! -----, । उनके पार्श्व-स्थित हिरणों पर-किए भूप. ने शर प्रहार ॥५॥ हयारूढ वह शीघ्र वहाँ आ पहले मृत, हिरणों को देखा । --- --- . उसी स्थान पर फिर उस नृप ने ध्यान स्थित मुनिवर को देखा ।।६।। मुनि को देख हुआ भय-भ्रान्त, भूप ने सोचा मैंने नाहक। , . .
आहत किया श्रमण को, मैं हूँ भाग्यहीन, रसलोलुप, घातक ॥७॥ हय को छोड़, विनयपूर्वक वन्दन, मुनि को नृप करता, कहता।
भगवन् क्षमा करे अपराध हमारा, यह यो अनुनय करता ॥८॥ वे भगवान् मौन पूर्वक सद् ध्यान-लीन थे अत. न उत्तर ।
दिया उन्होने, इससे नृप हो गया भयाकुल और अधिकतर ॥६॥ भगवन् ! मैं संजय नृप हूँ मेरे से बोले कृपावतार ।
वयोकि तेज से कोटि नरो को करता भस्म कुपित अनगार ॥१०॥ पार्थिव ! तुझे अभय है तू भी अभय प्रदाता बन सत्वर।
क्यो अनित्य इस जीवलोक मे, हिंसासक्त बना नरवर ॥११॥ सब कुछ छोड़ यहाँ परवश जाना ही होगा तुम्हे यदा।
क्यो अनित्य इस जीवलोक मे राज्य-मुग्ध हो रहा तदा ॥१२॥