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उत्तराध्ययन
पजर स्थित विहगी ज्यो मुझे न सुख है अत स्नेह को तजकर __ मुनिव्रत लूंगी सरल अकिंचन निरारंभ व निरामिष वनकर ॥४१॥ ज्यो दवाग्नि से वन मे जलते हुए जन्तुयो को सपेख ।
राग दोष वश अन्य जन्तु गण प्रमुदित होते उनको देख ।।४२।। त्यो हम कामभोग मूच्छित बन मूढ अज्ञ इतना न समझते।
रागद्वेष अग्नि मे सारा विश्व जल रहा किन्तु न लखते ।।४३।। वर भोगो को भोग, उन्हे तज अप्रतिबन्ध पवन ज्यो फिर ।
वे प्रसन्नता पूर्वक विहगो-भांति स्वतन्त्र विचरते चिर ॥४४।। भोग हस्तगत इन्हे सुरक्षित रखने पर भी है चचलतर ।
भोग-गृद्ध हम आर्य ! किन्तु वैसे होंगे जैसे भृगु-परिकर ।।४।। ग्रामिष सहित गीध पर विहग झपटते, न निरामिष पर देख ।
आमिष को अब छोड़ निरामिष होकर विचरूँगी सविवेक ।।४६।। गध्रोपम ससृतिवर्धक इन भोगों को मानव पहचान ।
गरुड़-समीप साँप ज्यो इनसे शंकित होकर चले सुजान ॥४७॥ ज्यो हाथी बन्धन को तोड चला जाता स्वस्थान, तथ्य है ।
नृप इषुकार हमे त्यो शिव मे जाना है यह सुना पथ्य है ॥४८॥ राजा-रानी विपुल राज्य फिर दुष्त्यज भोगों को झट छोड़।
निविषयी निःस्नेह निरामिष निष्परिग्रही हुए सिरमोर ॥४६॥ सम्यग् जान धर्म को वे तज आकर्षक सब भोग-विलास ।
यथाख्यात तप घोर ग्रहण कर, करते घोर पराक्रम खास ॥५०॥ यो क्रमशः वे होकर बुद्ध व धर्मपरायण बने सभी ।
जन्म-मरण भय से उद्विग्न, दुखान्त-खोज मे लगे सभी ॥५१॥ वीतराग शासन मे पूर्व भावना से भावित होकर ।
स्वल्पकाल मे ही दुखमुक्त बने हैं सब अघ-मल धोकर ॥५२।। राजा राणी विप्र पुरोहित तथा ब्राह्मणी दोनों पुत्र ।
छहो जीव परिनिर्वत हुए यहाँ ऐसा यह कहता सूत्र ॥५३॥