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उत्तराध्ययन
अनाकीर्ण एकान्त तथा नारीजन से जो विरहित स्थान । . ब्रह्मचर्य-रक्षा हित ऐसे स्थल में रहे भिक्षु गुणवान ।।४।। काम-राग पनपानेवाली मन आल्हादकरी विकथा ।
ब्रह्मचर्य-रत साधक ऐसी छोडे सतत नारि-कथा ॥४२॥ बार-बार नारि सह वार्तालाप-विवर्जन करे सदा।
ब्रह्मचर्य-रत साधक स्त्री के साथ न परिचय करे सदा ॥४३॥ प्रेक्षित चारुल्लपित - अग-प्रत्यग व नारि के सस्थान ।
. चक्षु-ग्राह्य विषयो पर ब्रह्मचर्य-रत श्रमण नही दे ध्यान ॥४४॥ नारी कूजन-रोदन-गर्जन-क्रन्दन-हास्य, मधुर संगीत ।।
श्रोत-ग्राह्य विषयो को छोड़े ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु पुनीत ।।४।। स्त्री-सह क्रीडा; हास्य, दर्प, आकस्मिक त्रास व रतिका अनुभव। . । हुआ, उसे अनुचिन्तन न करे ब्रह्मचर्य मे रत मुनि-पुंगव ।।४६।। प्रणीत भोजन-पान शीघ्र : मदवर्धक होता है यो जान। ---- 1 लिए सदा के ऐसा भोजन तजे शील-रत श्रमण महान ॥४७॥ जीवन-यापन हित-मित, लब्ध अशन निर्दोष समय पर खाए। ३ . ब्रह्मचर्य-रत स्वस्थ चित्तवाला मात्रा से अधिक न खाए ॥४८॥ ब्रह्मचर्य-रत साधक तजे विभषा तन परिमडन भी। - ।
• शृगारार्थ न धारण करे, केश, दाढी; नख आदि कभी ॥४६॥ पाच प्रकार काम-गुण हैं जो शब्द रूप रस गध स्पर्श । - - ___ इन्हे सदा के लिए छोड दे, साधक श्रमण मुमुक्षु सहर्ष ॥५०॥ स्त्रीजन से आकीर्ण, गेह फिर तथा--मनोरम नारि-कथा । ..
नारी-गण का परिचय, नारी-इन्द्रिय-दर्गन तूर्य तथा ॥५१॥ कूजन, रोदन हास्य, गीत का श्रवण भुक्तासित को याद। .
प्रणीत भोजन-पान प्रमाण-अधिक भोजन करता उन्माद ॥५२॥ देह सजाने की इच्छा फिर है ये दुर्जय काम व.भोग । : -
आत्म-गवेपो नर के लिए, तालपट. विप सम इनका योग ॥५३॥ लिए सदा, के दुर्जय काम व भोगो को छोडे पहचान । - शंकास्पद सव स्थान तजे, प्रणिधानवान-साधक गुणवान ॥५४॥