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पर्म पार सुनिल मा अनिया, सविता तो जब वह ॥
पन्द्रहवाँ अध्ययन
सभिक्षु धर्म धार मुनिव्रत लूगा, अनिदान, सहित, जो ऋजुकृत ही
परिचय विषय-कामना त्यागी, अज्ञातैषी भिक्षु वही ॥१॥ निशि-अविहारी भिक्षाजीवी आगम-विद् निज रक्षक ही।
. समदर्शी जित्-परिषह प्राज्ञ, न कही गृद्ध हो भिक्षु वही ॥२॥ वध, कटु वच को जान कर्मफल, धीर, श्रेष्ठ, सवृत नित ही।
हर्ष, विषाद-रहित हो सब कुछ जो सहता है भिक्षु वही ॥३॥ मिले प्रान्त शयनासन, दंश-मशक-शीतोष्ण त्रास कब ही।
सह कर भी जो हर्ष विषाद रहित होता है, भिक्षु वही ॥४॥ जो वन्दन-पूजा-सत्कार-प्रशसा कामी बने नही ।
सयत, सुव्रत, आत्म-गवेषक, सहित, तपस्वी भिक्षु वही ॥५॥ सयम जाए छूट, मोह बंध जाए मिलन-मात्र से ही ।
उस स्त्री, नर का सग, कुतूहल तजे तपस्वी भिक्षु वही ॥६॥ छिन्न, दड, स्वर, गगन, अग, लक्षण व स्वप्न, भू, वास्तु कही। ___ स्वर विज्ञानादिक से जीवन-यापन न करे भिक्षु वही ।।७।। वमन, विरेचन, स्नान वैद्यचिन्ता व मत्र मूलादिक ही।
आतुर-शरण, धूमनेत्रादि चिकित्सा छोड़े भिक्षु वही ॥८॥ क्षत्रिय, राजपुत्र, गण, विप्र, उग्र, भौगिक या शिल्पिक ही।
दोष जानकर इनकी पूजा श्लाघा न करे भिक्षु वही ॥६॥ दीक्षा के पहले या पीछे जो परिचित है गृहिजन ही।
इहलौकिक फल हित उनका परिचय न करे जो भिक्षु वही ॥१०॥ शयनासन, भोजन, जल, खाद्य-स्वाद्य है विविध प्रकार कही । न दे, निषेध करे, उस स्थिति मे कुपित न हो जो भिक्षु वही ॥११॥ गृही-गेह से विविध अशन-जल, खाद्य-स्वाद्य कर प्राप्त सही ।
आशीर्वाद न दे त्रियोग से, सवृत होता भिक्षु वही ॥१२॥