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अ० १४ : इषुकारीय
१०३ जिसकी मैत्री हो कृतान्त से शीघ्र पलायन जो कर सकता।
जोकि जानता मैं न मरूँगा, वह कल की आशा धर सकता ॥२७॥ है न अनागत कुछ भी मुनिव्रत आज ले रहे हैं हम जिससे। .
· श्रद्धाक्षम हो राग छोड़कर जन्म न लेना पड़े कि फिर से ॥२८॥ मुनि बनने का समय आ गया, सुत विन घर रहना न ठीक है।
तरु की शोभा शाखाओ से, उनके बिन वाशिष्ठि | ढूंठ है ॥२६॥ पखहीन ज्यो विहग तथा रण मे बलहीन भूपति जैसा।
वित्तहीन ज्यो पोत वणिक्, सुतहीन हो गया हूँ मैं वैसा ॥३०॥ रस प्रधान सुसभूत भोग यथेष्ट मिले है तुम्हे प्रचुरतम ।
' उन्हे,खूब भोगें पहले, फिर प्रधान पथ को चुन लेंगे हम ॥३१॥ भोग चुके रस वय भी तजता, , जीवन-हित न छोड़ता भोग ।, ___ सम्यग सुख-दुख लाभ-अलाभ देख, स्वीकार करूँगा योग ।।३२॥ प्रतिस्रोत-गत जीर्ण हस ज्यो बन्धुजनो की स्मृति न सताए ।
. अतः भोग भोगो मेरे सह, भिक्षाचर्या दुखद कहाए ॥३३॥ - सर्प केचुली को तज मुक्त भाग जाता त्यो भोग छोडकर। . ५ - सुत जाते हैं, क्यो न साथ हो लू, क्यो रहूं अकेला घरपर? ॥३४॥ अबल जाल को रोहित मत्स्य काटता झट, त्यो तज भोगो को।
घोरी, धीर, प्रधान तपस्वी, स्वीकरते भिक्षाचर्या को ॥३५॥ क्रौंच हंस ज्यों विस्तृत जाल छेद उड जाते त्यो सुत पतिवर-।। । जाते हैं तो क्यो न साथ हो लू क्यों रहूँ अकेली घरपर ? ॥३६॥ स-सुत स-दार पुरोहित भोग छोड़ दीक्षित हो गये निसुन अब ।
नृप को विपुल वित्तग्राही लख, रानी पुनः-पुन. कहती तब ॥३७॥ वान्ताशी नर नही प्रशसा पाता ऐसा स्पष्ट ज्ञात, है ।, ..
विप्रत्यक्त धन-पाने की इच्छा रखते हो बुरी बात है ॥३८॥ सारा विश्व तथा सारा धन तेरे वश हो जाए फिर भी।
वह पर्याप्त न होगा, तेरी रक्षा कर सकता न कभी भी ॥३९॥ यदा मरोगे तदा रम्य भोगो को तजना होगा भूप । ।
त्राणभत है एक धर्म ही अन्य न कोई त्राणस्वरूप ॥४०॥