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अ० १३ : चित्त-संभूत
उच्चोदय मधु कर्क मध्य ब्रह्मा व अन्य प्रासाद- सुयोग । युत, उस घर का कर उपभोग || १३ ||
धन पूरित, पाचाल वस्तु नाट्य, गीत, वाद्यो सह नारीजन परिवृत हो भोगो भोग । यह रुचता है मुझे वस्तुतः, दुखकर दीक्षा का दुर्योग ॥ १४ ॥ पूर्व स्नेह वश अनुरागी फिर काम गुणानुरक्त नृपवर से । हितानुप्रेक्षी धर्मस्थित मुनि चित्र ने वचन कहा यो फिर से || १५ || गीत विलाप रूप हैं, सव नाटक विडम्बना रूप कहा । सब कामभोग हैं दुखावहा ॥ १६ ॥ आभूषण हैं भारभूत, काम-विरत व तपोधन गील रक्त मुनि को सुख मिलता जैसा । दुखद काम ये बाल-प्रिय हैं इनमे सौख्य न मिलता वैसा ॥ १७ ॥ मनुजो मे जो अधम श्वपाक जाति मे पैदा हुए उभय हम । सबके द्वेष-पात्र बन रहते थे श्वपाक बस्ती मे नृप ! हम ॥ १८ ॥
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कुत्सित कुल मे जन्म लिया चाडाल बस्ती मे रहे विकल है । सभी घृणा करते थे, यहा उच्चता श्रेष्ठ पूर्वकृत फल हैं ॥ १६ ॥ महानुभाग, महद्धिक वंही बना अब राजा पुण्य सहित तू ।
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छोड़ अशाश्वत भोग, निकल घर से सयम-आराधन - हित तू ॥ २० ॥ नाशवान इस जीवन मे अतिशय शुभ कर्म न जो करता है । विहित-धर्मा मृत्यु-मुख स्थित अत्र परत्र शोक धरता है ।। २१ ।। यथा सिंह मृग को त्यो मृत्यु पकड ले जाती नर को आखिर ।
माता- पिता भाई उसके होते न अशधर मृत्यु- समय फिर ॥ २२ ॥ ज्ञाति, मित्र, सुत, बान्धव उसके दुख को बँटा न सकते तिलभर |
स्वय अकेला दुख अनुभवता, क्योकि कर्म कर्त्ता का अनुचर ॥ २३ ॥ द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्र, गेह, धन, धान्य विवंश वह छोड सिधाता ।
निजकृत कर्मों को ले साथ सुखद दुखद परभव मे जाता ||२४|| उस निसार केले तन को चिति मे शिखि से शीघ्र जलाकर । स्त्री सुत परिजन किसी अन्य दाता के पीछे हो जाते फिर ॥ २५ ॥ सजग कर्म, जीवन को मृत्यु निकट ले जाते, जरा वर्ण को । हरती, नृप पांचाल । वचन सुन मेरा, मत कर प्रचुर कर्म को ॥ २६ ॥
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