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नवाँ अध्ययन विनय-समाधि
(दूसरा उद्देशक) वृक्ष मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखा का होता उद्भव ।
तभी प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल, रस क्रमश. मिलता नव-नव ॥१॥ *धर्म का त्यो मूल विनय व मोक्ष फल' अन्तिम रहा ।
' श्लाघ्य, श्रुत, यश, सर्व जिससे प्राप्त करता मुनि महा ॥२॥ चंड, मृग, मानी, कुवादी और कपटी, शठ तथा।
अविनयी भव मे' भटकता काष्ठ स्रोतोगत यथा ॥३॥ विनयहित सदुपाय-प्रेरित जो सुगंरु से कोपता।
दिव्य श्री आती हुई को दण्ड से वह रोकता ॥४॥ ज्यो अविनयी औपवाह्य' हयादि ढोते भार हैं।
। दुखित सेवा काल मे वे दीखते हर बार है ॥५॥ प्रोपवाह्य विनीत हय गज का , सुखी ससार है।
___ ऋद्धि प्राप्त, महा यशस्वी दीखते हर बार है ॥६॥ त्यो सदा अविनीत नर-नारी यहाँ जो लोक मे। . .. विकल-इन्द्रिय और दुर्बल दीखते हैं शोक मे ॥७॥ ‘दड शस्त्रो से प्रताड़ित, तिरस्कृत कटु वचन से। .. करुण परवश क्षुत्-तृषाऽऽकुल दीखते दुख मे फंसे ॥८॥ सुविनयी नर-नारियो का त्यो सुखी ससार है।
__ ऋद्धि-प्राप्त महायशस्वी दीखते हर बार है ।।६।। इस तरह अविनीत जो सुर, यक्ष गुह्यक लोक मे।
दुखित सेवा काल मे वे दीखते हैं शोक मे ॥१०॥
१. राजाओं के सवारी करने योग्य हाथी-घोड़े।