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दशकालिक
प्रसन्न हो गुरु जिससे, फिर मिले न बोधि व मोक्ष उसे । इसीलिए निर्बाध सुखेच्छुक सुगुरु कृपा-ग्रभिमुख निवसे ॥ १० ॥ आहुति मत्र पदाभिषिक्त शिखि को ज्यो आहिताग्नि' नमता । त्यो अनन्तज्ञानी भी गुरु सेवा मे नित्य रहे रमता ॥ ११ ॥ सीखे जिनसे धर्मपदादिक, सुविनय उनका सदा करे ।
नतमस्तक कर जोड वचन का या मन से सत्कार करे ॥१२॥ लज्जा, दया, शील, सयम, कल्याण- इच्छु के शुद्धि-स्थान ।
इनकी सीख मुझे देते नित प्रत: सुगुरु है पूज्य महान ॥ १३॥ ज्यो निशान्त में दीप्त-सूर्य करता सारा भारत भासित । हरि' ज्यो सुरगण मे त्यो गुरु श्रुत शील बुद्धि से शोभान्वित ॥ १४ ॥ शरद पूर्णिमा सेवित विधु नक्षत्र तारको से परिवृत ।
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मुक्त निर्मल नभ मे शोभित त्यो गुरु मुनिजन- सवृत ॥१५॥ शील समाधियोग श्रुत-बुद्धि-महाकर' महा- ऐषी आचार्य ।
तुष्ट करे राधे उनको धर्मी शिवकामी मुनि श्रार्य ॥ १६ ॥ सुन सद्-भाषित मेधावी मुनि अप्रमत्त गुरु-सेव करे ।
गुण अनेक आराध अनुत्तर सिद्धि वधू को यहाँ वरे ॥ १७॥
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१. अग्निहोत्री ब्राह्मण । २. इन्द्र । ३. महान गुणों की खान । ४ महान के खोजी ।