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ॐ
दशकालिक
पावस या फिर मासकल्प कर वहाँ न अगला' बास वसे । सूत्र तथा ग्रर्थानुरूप ही भिक्षु स्वय को सदा कसे ॥ ११ ॥ पूर्वाऽपर निशि मे निज को निज से पहचाने महामना । क्या-क्या किया, शेष क्या करना और शक्य क्या है अधुना ॥ १२ ॥ मेरी स्खलना अन्य या कि मैं देख रहा तज रहा नही ।
यो सम्यक् सोचे वह आगे करे नही प्रतिबन्ध कही ॥ १३ ॥ मन वच तन से दुष्प्रवृत्त देखे मुनि निज को यहाँ कभी ।
खीचे मन को वापिस, ज्यो हय को लगाम से धीर तभी ॥ १४ ॥ जो सत्पुरुष जितेन्द्रिय यों स्थित योग धीर रहता गण मे । कहलाता प्रतिबुद्ध और वह जीता संयम जीवन में ॥ १५ ॥ सर्वेन्द्रिय सुसमाहित होकर आत्म-सुरक्षा करे मुदा । रक्षित दुःखमुक्त होता, भव-भ्रमण अरक्षित करे सदा ॥ १६ ॥
१ चतुर्मास करने के बाद वहाँ फिर दो चतुर्मास न करना, तथा मास कल्प रहने के बाद यहां फिर दो मास न रहना ।