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" " सातवाँ अध्ययन
। उरभ्रीय . ' यथा पाहुने के खातिर कोई बकरे को अपने घर पर।
. रखकर पोषण करता है ओदन यव आदिक उसको देकर ॥१॥ तत पुष्ट परिवृद्ध महोदर जात-मेद हो रहता है ।
प्रीणित, विपुल देहवाला वह अतिथि प्रतीक्षा करता है ॥२॥ जब तक नही पाहुना आता, जीता वेचारा तब तक।
आने पर पाहुना छेद सिर खा जाते है उसे वधक ॥३॥ ज्यो कि मेमना मेहमान की नित्य प्रतीक्षा करता है।
बाल अधर्मी त्यों ही नर आयुष्य चाहता रहता है ॥४॥ हिंसक, अज्ञ, मृषावादी फिर पथिक लूटनेवाला नर ।
___ अन्य दत्त हर, चोर; कुतोहर, मायावी, शठ तथा अपर ॥५॥ नारी-विषय गृद्ध फिर महदारंभ-परिग्रह 'मतवाला।
सुरा, मासभोजी, बलवान व अपर दमन करनेवाला ॥६॥ अज कर्कर-भोजी, तुन्दिल फिर उपचित रुधिरवाने 'पापिष्ट ।
ज्यो एलक आदेश चाहता त्यो वह नरकाऽऽयुष्य अशिष्ट ॥७॥ शायनाऽऽसन, धन, यान, कामभोगों को भोग यहाँ जीवन-भर। दुखाहृत धन-व्यसनो मे कर नष्ट, बहुत अघ-रज कर सचय ।।८।। अघ से भारी प्राणी, केवल वर्तमान को ही लख पाता।
मेहमान आने पर अज ज्यो मृत्यु-समय पर वह पछताता ॥९॥ फिर आयुष्य पूर्ण होने पर देह छोडकर हिंसक बाल।
अन्धकार युत नरक योनि मे पड़ता परवश नर विकराल ॥१०॥ यथा काकिणी के खातिर कार्षापण मनुज हजार गवाता। . .,
और अपथ्य आम खाकर नृप निज जीवन सह राज्य गवाता॥११॥ त्यो मानुष्यक कामभोग ये देवो के वर भोग समक्ष ।
सहस्र गुना करने पर भी आ सकते नही दिव्य-समकक्ष ।।१२।।