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11. उत्तराभ्ययन इस प्रकार सुन अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ! ... .. ., देवराज ने नमि राजर्षि-प्रवर से फिर इस भॉति कहा ॥४१।। धोराश्रम को छोड अन्य आश्रम की इच्छा उचित नही है।
रहकर यही रक्त होओ पोषध मे; नरवर उचित यही है ॥४२॥ सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ।
नमि राजर्षि-प्रवर ने देवराज से फिर इस भाँति कहा ॥४३।। जो कि बाल, मासानन्तर कुश अग्र मात्र भोजन करता है। . वह स्वाख्यात धर्म की कला षोडशी भी न प्राप्त करता है ।।४४।। इस प्रकार सुन अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा | ..
देवराज ने नमि राजर्षि-प्रवर से-फिर इस भांति कहा ।।४।। स्वर्ण रजत मणि. मुक्ता वसन कांस्य-पात्र वाहन भडार ।
इनकी वृद्धि करो फिर मुनि बन जाना हे क्षत्रिय-शृगार | ॥४६।। सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा । - - - . । नमि राजर्षि-प्रवर ने देवराज से फिर इस भाँति कहा ॥४७॥ स्वर्ण रजत के गिरि असख्य कैलाश तुल्य हो लुब्धक-पास ।
फिर भी तृप्त न होता इच्छा है, अनन्त जैसे- आकाश ॥४८॥ भूमि, शालि, जौ, सोना, पशु ये सभी एक की यहा अरे.! - . । इच्छा पूर्ति हेतु असमर्थ जान कर तप-आचरण करे ॥४६।। इस प्रकार सुन, अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ! । - देवराज ने नमि राषि-प्रवर से, - फिर इस भाँति कहा, ॥५०॥ अभ्युदय बेला मे भोग छोड़ते हो नप ! चित्र अमाप । . " असत-काम की इच्छा से सकल्प प्रताडित होगे आप ॥५१॥ सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा-! ' नमि राजर्षि-प्रवर, ने देवराज़ से फिर इस भाँति कहा ॥५२॥ शल्य तथा विष तुल्य काम है, आशीविष सम है यह, काम ।। -
बिना भोग के चाह मात्र से ही. नर पाते-दुर्गति-धाम,॥५३॥ नीचे गिरता. मनुज क्रोध से, मिले मान से-अधम- गति। ... __ दभ, सुगति-नाशक व,लोभ, से उभय लोक मे भय-प्रगति ॥५४।।