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उत्तराध्ययन
सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा !
नमि राजर्षि - प्रवर ने देवराज से फिर इस भांति कहा ||१३|| हम, जिनके पास न कुछ भी है ।
सुख से रहते जीते है
मिथिला जलती है उसमे मेरा न जल रहा कुछ भी है || १४ || सुत दारा से मुक्त भिक्षु फिर जो रहता है निर्व्यापार |
उसके लिए न कोई प्रिय-अप्रिय है, सम सारा ससार ॥१५॥ जो एकत्व-तत्त्वदर्शी फिर सब बन्धन से होता मुक्त ।
गृहत्यागी सुतपस्वी मुनि वह विपुल सुखो से होता युक्त ॥ १६ ॥ इस प्रकार सुन अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा !
देवराज ने नमि राजर्षि - प्रवर से फिर इस भाति कहा ॥ १७॥ पहले परकोटा, गोपुर, खाई व शतघ्नी बनाकर ।
तदनन्तर तुम मुनि बन जाना कहना मानो क्षत्रियवर ! || १८ || सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा !
नमि राजर्षि - प्रवर ने देवराज से फिर इस भांति कहा ॥ १६ ॥ श्रद्धा नगर व क्षमा शतघ्नी तप सयम अर्गला बना ।
मन वच काय गुप्ति-रक्षित दुर्जेय निपुण प्राकार बना ॥२०॥ धनुष पराक्रम रूप तथा ईर्ष्या को उसकी डोर बना ।
धृति को मूठ बना फिर उसे सत्य से बांधे महामना ॥ २१ ॥ तप नाराच युक्त, फिर उससे कर्म - कवच को कर भेदन |
इस प्रकार कर ग्रन्त युद्ध का, भव से होता मुक्त श्रमण ॥ २२ ॥ इस प्रकार सुन प्रर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा
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देवराज ने नमि राजर्षि - प्रवर से फिर इस भाति कहा ॥ २३ ॥ पहले वर प्रासाद व वर्धमान गृह तथा चन्द्रशाला ।
बनवाओ फिर हे क्षत्रियवर ! तुम मुनि बन जाना आला ॥ २४ ॥ सुन करके यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा !
नमि राजषि-प्रवर ने देवराज से फिर इस भाँति कहा ||२५|| वह सदिग्ध वना रहता है जो कि बनाता पथ मे घर ।
जहाँ कि जाना चाहे वही बनाए अपना घर बुध-वर ॥ २६ ॥