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अ• १२ : हरिकेषबल
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जहाँ बीज सारे उग जाते वे सब क्षेत्र हमें हैं ज्ञात । विद्या-जाति युक्त द्विज ही है पुण्य क्षेत्र जग मे साक्षात ॥ १३ ॥
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क्रोध मान वध मृपा अदत्त परिग्रह से होते संश्लिष्ट ।
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विद्या- जांति विहीन विप्र वे पाप-क्षेत्र ही है अपकृष्ट || १४ ||
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वेदो को पढ अर्थ - अज्ञ तुम सिर्फ गिरा का ढोते भार ।
उच्चावच कुल गमनशील मुनि ही हैं पुण्य-क्षेत्र जंग सार ॥ १५ ॥ अध्यापक-गण के विरुद्ध, हम सब के सम्मुख वकता स्पष्ट । तुझे न देगे अन्न - सलिल यह चाहे हो जाये सब नष्ट ॥ १६ ॥ सुमित- समाहित गुप्ति- गुप्त दमितेन्द्रिय मुझको यह अनवद्य । अशन'न दोगे तो यज्ञो का लाभ तुम्हे क्या होगा अद्य ? ' ॥१७॥ उपज्योतिष, अध्यापक, क्षत्र- छात्र कोई है यहाँ अरे । 1 कंठ पकड़ करें, दड- फलक' से मार हटाए इसे परे ॥ १८ ॥
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सुन अध्यापक वचन बहुत से दौडे उधर कुमार सजोश । दंड, बत, चाबुक से ऋषि को लगे पीटने छात्र सरोष ॥ १६ ॥
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भूप कोशलिक की वर-पुत्री भद्रा हन्यमान मुनिको तब
देख, शान्त वह करने लगी वहाँ उन ऋद्ध कुमारो को अब ॥ २० ॥
देव-प्रेरणा से नृप द्वारा मैं दी गई किन्तु इस ऋषि ने
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मुझे न चाहा नृप - सुर-इन्द्र- पूज्य है मुझको छोडा जिसने ॥२१॥
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उग्र तपस्वी 'दीन्त, महात्मा ब्रह्मचर्यधारी सयंत ने ।' ं” " स्वयं कोशलिक पितु द्वारा देने पर मुझे
न चाहा इसने ॥२२॥
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महानुभाग महायश घोरं पराक्रम व्रतधरें मुनि अहील की ।
करो न होला कही तेज से 'दहे न तुमको यह अपील की ||२३|| वचन सुभाषित पत्नी भद्रा के सुनकर यक्षो ने सत्वर ।
ऋषि सेवा के लिए कुमारों को तब गिरा दिया है भू पर ॥ २४ ॥ लगे मारने छात्रो को अव, यक्ष नभस्थित घोर रूप धर ।" R " रुधिरं वमन करते क्षत-विक्षत उन्हे देख भेंद्रा बोली फिर ॥२५॥ जो अपमान भिक्षु को करते वे नख से गिरि खोद रहे हैं । अग्नि बुझाते पैसे से दांतों से लोहा चबा रहे हैं ||२६||
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