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अं० ६ :
नमि प्रयो
ब्राह्मण रूप छोडकर इन्द्र रूप मे प्रकटित हो शकेन्द्र | कर वदना मधुर शब्दो मे स्तवना करने लगा सरेन्द्र || ५५ || निर्जित किया क्रोध को अहो, मान को किया पराजित है । ग्रहो, निराकृत की माया को तेरे लोभ वशीकृत है ॥ ५६ ॥ अहो | तुम्हारा आर्जव उत्तम, मार्दव तेरा श्रति उत्तम । अहो क्षमा उत्तमें है' तेरी, 'लोभमुक्तता उत्तमतम ॥ ५७ ॥
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यहाँ आप उत्तम हैं भगवन् ! 'आगे भी उत्तम होंगे ।
नीरज वन लोकोत्तम सिद्धि-स्थल को शीघ्र प्राप्त होंगे ॥५८॥ यो उत्तम श्रद्धा से शक राज ऋषि की स्तवना करता । फिर प्रदक्षिणा करते हुए वन्दना पुन - पुन. करता ॥५६॥
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चक्रांकुश लक्षण वाले 'मुनि के चरणों मे वह वन्दन कर ।
ललित चपल कुडल व मुकुट घर इन्द्र गया नभ पथ से उड़कर ॥
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साक्षात् शक्रं प्रप्रेरित नमि ने नमा लिया निज श्रात्मा को अब । सयम मे हो गए उपस्थित तजकर गृह पुर मिथिला को अब ॥ ६१ ॥ जो संबुद्ध विचक्षण पडित करते हैं वे इसी प्रकार । भोगो से होते उपर ज्यो नमि राजर्षि हुए अविकार ||६|| M
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