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'छठा अध्ययन
- क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय विद्याहीन पुरुष जितने हैं वे सब दुख पैदा करते है।
इस अनन्त ससृति मे बहुश मूड लुप्त होते रहते है ॥१॥ पाग व जाति-पथो की अत समीक्षा सम्यक् पडित कर ।
स्वयं सत्य को खोजे, मैत्री भाव रखे सब जीवो पर ॥२॥ मात, पिता, सुतवधू व भ्राता, भार्या औरस-पुत्र सही।
___ कर्म-विपाक समय मे ये सब मम रक्षार्थ समर्थ नही ॥३॥ सम्यक्दर्शी उक्त विषय को निज मति से सोचे-समझे ।
गृद्धि स्नेह को छोड पूर्व परिचय अभिलाषा सतत तजे ॥४॥ गाय, अश्व, मणि, कुडल, पशु, नर, दासादिक तज देने पर।
मनचाहा तू रूप बनाने में समर्थ होगा हे नर । ॥५॥ स्थावर, जगम, धन-धान्यादि गृहोपकरण यहा सशक्त है।
किन्तु कर्म पीड़ित को दु.ख-मुक्त करने मे ये अशक्त है । सब सुख जीवन मुझे इष्ट है त्यो सब जीवो को भी जान ।
प्राणी के प्राणो को न हरे भीति-वैर-उपरत धीमान ॥६॥ परिग्रह को नरक जान, फिर बिना दिया तृण भी न ग्रहे ।
पाप-जुगुप्सक, पात्र-दन्त भोजन खाये सतुष्ट रहे ॥७॥ ऐसा कई मानते हैं आचार-विज्ञ केवल बनकर नर।
पाप-त्याग के बिना सर्व दु खो से होता मुक्त यहाँ पर ।।८।। यो कहते पर क्रिया न करते बन्ध-मोक्ष के सस्थापक वे ।
केवल वचन-वीरता से निज को देते है आश्वासन वे ॥६॥ नाना भाषाए, विद्या का अनुशासन, कैसे हो त्राण ?
पाप कर्म मे लिप्त स्वय को विज्ञ मानते हैं अनजान ॥१०॥ मन वच तन से पूर्णतया जो वर्ण रूप तन मे आसक्त।
वे सब अपने लिए दु ख पैदा करते है धर्म विरक्त ॥११॥