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अ० २. परीषह
छह
तप - उपधान- भिक्षु प्रतिमादिक धारण करने पर भी हन्त । अब तक छद्मभाव से दूर न हुआ न ऐसे सोचे सन्त ॥ ५२ ॥ निश्चित पर-भव है न तथा मिलती न तपस्वी को ऋद्धि ।
ठगा गया मैं तो हा । ऐसी हो न कभी मुनि की बुद्धि || ५३ ॥
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जो कहते जिन हुए व होगे तथा अभी भी हैं जिनवर । झठ बोलते हैं वे सारे - यों न कभी सोचे मुनिवर || ५४ || ये सब परिषह किये प्रवेदित काश्यप ने जो यहाँ सही । इनसे स्पर्शित होने पर भी भिक्षु पराजित हो न कही || ५५ ॥