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अ० ३ : चातुरंगीय
कर्म- हेतु को छोड क्षमा से सयम यश का संचय कर । इस पार्थिव तन को तज ऊर्ध्व दिशा मे गति करता वह नर ॥१३॥
विसदृश शील पालकर उत्तम से उत्तम सुर बनते है ।
महा शुक्ल ज्यो दीप्यमान वे पुन. न च्यवन मानते हैं || १४ || दैवी भोगो के हित अर्पित वे करते है ऐच्छिक रूप ।
तथा असंख्य काल तक ऊर्ध्वं कल्प मे रहते दिव्य स्वरूप ॥ १५ ॥ यथास्थान वे ठहर वहाँ आयु क्षय होने पर च्यव कर ।
मनुष्य जन्म के साथ दशाग प्राप्त कर लेते हैं वरतर ॥ १६ ॥ क्षेत्र. मकान, सुवर्ण, दास, पशुओ से भृत जो होता स्थान ।
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चारो स्कध काम के सुलुभ, जहाँ वे लेते जन्म प्रधान ॥ १७ ॥ उच्च-गोत्र, फिर मित्र ज्ञाति वाला, अति रूपवान होता । महाप्राज्ञ, गत रोग, यशस्वी, विनयी, शक्तिमान होता ॥ १८ ॥ अनुपम, मानवीय भोगो के भोग यहा जीवन-भर अभिनव । पूर्व विशुद्ध-धर्म वाले वे शुद्ध बोधि का करते अनुभव ॥ १६ ॥ दुर्लभ जान चार अगो को फिर करके सयम स्वीकार ।.
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तप से कर्म-क्षय कर शाश्वत होता सिद्ध अचल विकार ||२०||
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