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अ०२ : परीषह दलदल सम पहचान स्त्रियों को, 'उनमे न फंसे मेधावी। "
संयम के पथ मे विचरे नित आत्म-गवेषक समभावी ॥२६॥ प्राशुक-भोजी परीषहो को जीत श्रमणता वहन करे।
ग्राम, नगर या निगम राजधानी मे एकाकी विचरे ॥२७॥ असदृश होकर भिक्षु रहे नित न करे परिग्रह-संचय ।
रहे गृहस्थों से निर्लिप्त तथा विचरे होकर अनिलय ॥२८॥ शून्यागार, श्मशान, वृक्ष के नीचे रहे अकेला -शान्त ।
सर्व चपलतानो को तजकर पर को त्रास न दे मुनि दान्त ॥२६॥ तत्र-स्थित उपसर्ग प्राप्त हो सोचे ये क्या कर लेगे अब ।
लेकिन अनिष्ट-शंका से डरकर अन्यत्र न जाए मुनि तव ॥३०॥ प्राणवान, सुतपस्वी उच्चावच शय्या से मर्यादा को
लावे नही, किन्तु जो पाप-दृष्टि वह लाँघे मर्यादा को ॥३१॥ अच्छा-बुरा विविक्त स्थान मिलने पर ऐसे सोचे स्पष्ट । ' एक रात्रि में यह क्या कर लेगा ? यो सोच सहे सब कष्ट ।।३२।। यदि कोई गाली दे मुनि को "उस पर क्रोध न करे कही। '' क्योंकि क्रोध से बने मूढ सम अत. क्रोध को तजे सही ॥३३॥ कठोर, दारुण, कंटक-समें चुभनेवाली 'भाषा सुनकर।। 't - उसे न मन मे सोचे क''उपेक्षा ही मौनी बनकर ॥३४॥ क्रोध न करे पीटने पर भी मन भी दूषित करे नहीं।
परम क्षमा को जान, धर्म का चिन्तन भिक्षु करे नितं ही ॥३५॥ श्रमण दान्त सयत को कोई पोटे कही मनुष्य अनार्य । __नही जीव का नाश कभी होता यों' सोचे संयत आर्य ॥३६॥ भव्यो । अति दुष्कर अनगार भिक्षु की चर्या का अभ्यास। १.. सभी वस्तुए याचित हैं न अयाचित कुछ भी- उसके पास ॥३७॥ गोचराग्रगत मुनि के लिए न गृहि-सम्मुख कर का पसारना । । 13 : सरल, अत. गृहवास श्रेय है यो मन मे न करे. विचारणा ।३८।।