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उत्तराध्ययन
काली पर्वाङ्ग-सदृश कृश-तन, स्पष्ट दीखता धमनी-जाल ।
अशन-पान-मात्रज्ञ, अदीन-मना फिर भी विचरे उस काल ॥१२॥ तत प्यास लगने पर पाप-जुगुप्सी सयत लज्जावान ।
शीतोदक न ग्रहे मुनि विकृत नीर की खोज करे धीमान् ।।१३।। छाया-रहित विजन-पथ मे, प्यासाऽऽकुल वने अतीव कदा।
शुष्क मुह मुनि, अदीनता से तृषा-परीषह सहे तदा ॥१४॥ हुए विचरते, रूक्ष, विरत मुनि को सर्दी लगती भारी।
फिर भी जिन-शासन को सुन वह समय न लाघे व्रतधारी ॥१५॥ शोत-निवारक स्थान वस्त्र भी मेरे पास न है पर्याप्त ।
तो फिर अग्नि ताप लूं, यो चिन्तन भी न करे संयम-प्राप्त ॥१६॥ ग्रीष्म-ताप से तप्त, दाह-पीडित अत्यन्त बने जिस बार ।
सुख के लिए न आकुल, व्याकुल वने कभी सयत धृति धार !॥१७॥ ग्रीष्म-तप्त, मेधावी स्नान न करना चाहे यहाँ कभी।
जल से तन सीचे न, हवा भी न करे मुनि निज तन पर भी ।।१८।। दंश-मशक स्पर्शित होने पर, रखे महा मुनिवर समता।
ज्यों कि शूर गज संगर मे, आगे हो अरियो को दमता ॥१६॥ रुधिर, मांस खाने पर भी न हटाए, त्रस्त न हो मुनिवर ।
मन भी म्लान न करे, न मारे करे उपेक्षा ही उन पर ॥२०॥ वस्त्र जीर्ण हो गये सभी ये, बनू अचेलक मैं इस बार । __ अथवा बनू सचेलक अब मैं यो न भिक्षवर करे विचार ॥२१॥ कभी अचेलक कभी सचेलक होते श्रमण यहाँ मन मार। . __इन्हे धर्म-हित हितकर समझ न व्याकुल हो ज्ञानी अनगार ॥२२॥ गाँव-गाँव मे विहरन करते हुए अकिचन मुनिजन को।
कभी अरति हो जाए तो फिर सहन करे उस परीषह को ॥२३॥ विरत, प्रात्म-रक्षक मुनि, अरति परीषह को देकर के पीठ ।
निरारभ, उपशान्त, धर्म उपवन मे रमता रहे पुनीत ॥२४॥ इस जग मे मनुजों के लिए नारियाँ तीन लेप सम हैं। -
सम्यक् इसे जानता उसका सफल श्रमणता का क्रम है। ॥२५॥