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उत्तराध्ययन
हित शासन को ठोकर, वध, आक्रोग, चपेट मानता है।
पापदृष्टि अविनीत अहितकर गुरु की सीख जानता है ॥३८॥ ज्ञाति बन्धु, सुत लख गुरु सीख मुझे देते, माने सुविनीत । निज को दास समझ, गुरु शासन माने पापदृष्टि अविनीत ।।३।। गुरु को कुपित न करे तथा फिर नही कुपित हो स्वय कभी ।
बुद्ध जनो का घातक न बनें न वने छिद्र-गवेषक भी ।।४०।। कुपित जान गुरु को, प्रतीतिकारक वचनो से करे प्रसन्न ।
हाथ जोड़ कर शान्त करे फिर न करूंगा यो कहे वचन ॥४१॥ धर्मार्जित या फिर तत्वज्ञाऽचरित जो कि व्यवहार कहा ।
उस पर चलने वाले की न कभी होगी निन्दा, गर्दा ॥४२॥ गुरु के वचन मनोगत भावो को सम्यक् पहचान मुदा।
वाणी से स्वीकृत कर कार्य रूप मे परिणत करे सदा ॥४३।। विनती, अप्रेरित भी सुप्रेरित ज्यो कार्य करे सत्वर ।
यथोपदिष्ट सुकृत कार्यों को करता रहे सतत मतिधर ॥४४॥ सुधी जान यो नम्र बने जो, जग मे यश उसका होता।
जीवो को ज्यो पृथ्वी त्यो आधारभूत गण का होता ॥४५।। पूज्य, पूर्व-सस्तुत, सवुद्ध, सुगुरु प्रसन्न होते जिस पर ।
विपुल अर्थ श्रुत लाभ उसे देते प्रसन्न होकर गुरुवर ।।४६।। पूज्यशास्त्र, गत-सशय, मन रुचि कर्म संपदा-स्थित द्युतिमान् ।
तप सामाचारी व समाधि-सुसवृत पंच महाव्रतवान ।।४७।। नर गधर्व देव-पूजित वह समल देह को छोड़ यहाँ । ___ शाश्वत सिद्ध बने व महद्धिक देव स्वल्प-रज बने कहा ॥४८॥