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दुष्ट अव चाबुक को त्यों चाहे गुरु वचन न वारम्बार । कशा देख विनयी हय की ज्यो अशुभ प्रवृत्ति तजे हर बार ॥ १२ ॥ कुशील कटुभाषी प्राज्ञालोपक मृदु को भी कुपित बनाता । चित्तानुग, लघु, दक्ष, शिष्य क्रोधित गुरु को भी शान्त बनाता ॥१३॥ पूछे बिना न बोले किचित् झूठ न कहे पूछने पर ।
करे क्रोध को अफल तथा प्रिय अप्रिय सभी सहे मुनिवर || १४ ||
उत्तराध्ययन
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यह श्रात्मा दुर्दम है अत चाहिए करना आत्म- दमन । इह पर भव मे सदा सुखी रहता दान्तात्मा प्रमुदित मन ॥१५॥ तप-संयम से निज आत्मा का दमन करूँ पथ श्रेष्ठ यही ।
अन्य लोग, वघ-बन्धन द्वारा दमन करे यह उचित नही ||१६|| जन समक्ष या विजन स्थान मे गुरुजन से न बने प्रतिकूल ।
मन वच, काया से सुशिष्य न कदापि करे एतादृश भूल || १७||
गुरु के आगे-पीछे नही बराबर भी बैठे अनगार ।
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सटकर भी बैठे न सुगुरु वच शय्या स्थित न करे स्वीकार ||१८|| पर्यस्तिका व पक्षपिण्ड आसन से कभी नही बैठे ।
जब कि समीप स्थित गुरु हो तब पाँव पसार नही बैठे ॥ १६ ॥ संबोधित प्राचार्य करे जब तब मुनि नही रहे चुपचाप ।
मोक्षार्थी गुरु-निकट कृपा - श्रभिमुख बन सदा रहे निष्पाप ॥ २० ॥ सकृत व पुन - पुन सबोधित करने पर न रहे बैठा ।
आसन तज गुरु-वचन यत्न से ग्रहण करे धृति मे पैठा ॥ २१ ॥ आसनगत या शय्यागत न कभी भी पूछे गुरुजन से 1
श्रा समीप, उत्कटुकासन हो प्राजलि पुट, पूछे उनसे ॥ २२ ॥
ऐसे विनयवान को सूत्र - अर्थ फिर तदुभय सिखलाए ।
प्रश्न पछने पर सुशिष्य को सगुरुं यथाश्रुत बतलाए ॥ २३ ॥
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तजे झूठ फिर निश्चयकारी गिरा न बोले भिक्षु कदा ।
• भाषा के सब दोष तजे, मुनि छोड़े, माया- पाप सदा ||२४||