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उत्तराध्ययन
भोजन बन जाने पर गहि-सदनो मे करे एषणा संत।
थोड़ा मिलने या कि न मिलने पर अनुताप न करे महन्त ॥३६॥ आज न भिक्षा मुझे मिली पर सभव है कल को मिल जाए।
जो यो सोचे उसे अलाभ सताता नहीं कही वह जाए ॥४०॥ रोगोत्पन्न वेदना पीडित होने पर न बने मुनि दोन ।
प्रज्ञा को स्थिर रखे प्राप्त दुःख सहन करे हो समता-लोन ॥४१॥ आत्म-गवेषक समाधिस्थ समझे न चिकित्सा को अच्छा। __ करे, कराये नही चिकित्सा यही श्रमणता है सच्चा ॥४२।। रूक्ष गात्र व अचेलक सयत और तपस्वी के जीवन मे।
तृण पर सोने से होती है चुभन-व्यथा उस मुनि के तन मे ॥४३॥ अति आतप पड़ने पर अतुल वेदना हो जाती यो जान।
फिर भी वस्त्र न धारे तन पर तृण पीड़ित वह साधु महान ॥४४॥ ग्रीष्म-ताप से तप्त तथा प्रस्वेद रजो से पकिल गात्र ।
है फिर भी मेधावी सुख-हित नही विलाप करे तिल मात्र ॥४५।।
आर्य निर्जरापेक्षी धर्म अनुत्तर पाकर वहन करे ।
देहनाश तक तन पर स्वेद-जनित परिषह को सहन करे ।।४६।।
अभिवादन सत्कार निमत्रण का सेवन जो करते नृप से।
उनकी इच्छा न करे, धन्य न माने उनको मुनिवर मन से ॥४७॥
अज्ञातैषी, अल्प-कषाय, अलोलुप, अल्प-इच्छु, धीमान् ।
रस-मूच्छित न बने न करे अनुताप देख पर का सम्मान ॥४८॥ पूर्वाजित अज्ञान फलद कर्मों के कारण मैं उत्तर ।
देना नही. जानता किस ही के कुछ पूछे जाने पर ।।४।।
कृत-अज्ञान फलद ये कर्म उदय मे आते पकने पर। . कर्म-विपाक जान यो अपने को आश्वासन दे मुनिवर ॥५०॥ मिथुन-विरति, इन्द्रिय-मन-दमन, निरर्थक मेरे व्रत-सघात ।
- क्योकि धर्म शुभकर या अघकर यह न जानता मैं साक्षात ॥५१॥