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क्लेशाऽऽवृत दुःखोपनीत नारक के पत्योपम सागर ।
हो जाते हैं पूर्ण एक दिन तो मेरा दुख क्या दुस्तर ॥ २६ ॥ दुख मेरा यह चिर न रहेगा भोग-पिपासा है अस्थिर ।
तन बल रहते मिटे न चाहे मिटे मृत्यु पर वह श्राखिर ||२७|| यो दृढ जिसकी आत्म बने वह धर्म न तजे, तजे निज तन ।
डिगा न सकती उसे इन्द्रियाँ ज्यो सुमेरु को प्रलय-पवन ॥२८॥ यो घीमान सोच पहचाने प्रायोपाय' विविध पावन । त्रिकरण योग त्रिगुप्ति - गुप्त जिन वचन ग्रधिष्ठित रहे श्रमण ॥२६॥
१ लाभ और उनके साधन 1