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प्रथम चलिका.
रति-वाक्या प्रव्रज्या के बाद आ पडे दुख असह्य हे शिष्य ! कदा।
___ संयम-विचलित मन हो जाए चाहो बनना गृही यदा ॥१॥ चरित्र-त्याग से पहले सोचो सम्यकतया अठारह स्थान ।
जो प्रेरक होते ह्यरश्मि गजांऽकुश नौ-पतवार' समान ॥२॥ हे आत्मन् । इस दुषम काल में जीवन अधिक कठिनतर है।
तुच्छ क्षणिक ये काम-भोग हैं बहुलतया कपटी नर हैं ॥३il दुःख चिरस्थायी न रहेगा जीवन में यह हे आत्मन् ।
नीच खुशामद करनी होगी करना होगा वान्त ग्रहण ॥४॥ नारकीय जीवन स्वीकृत होगा व गहस्थी मे बसकर ।
दुर्लभ होगा धर्म पालना माया-पाशो मे फँसकर ॥५॥ विविध रोग 'आतङ्कों से यह नष्ट सुकोमल होगा तन। ..
इष्टानिष्ट वियोग-योग संकल्प करेंगे व्याकुल मन ॥६॥ क्लेश युक्त गृहिवास और फिर निरुपक्लेश संयम-धन है।
बन्धन है गृहि-वास और चारित्र मोक्ष का साधन है ॥७॥ है गृही-वास सावध व असावद्य मुनि की पर्याय समझना।
बहु साधारण कामभोग हैं, पुण्य-पाप है अपना-अपना ॥८॥ अध्रुव नर-जीवन कुशाग्र जल-बिन्दु तुल्य अति है चंचल ।
बहुत किये हैं पाप अतः यह चपल हुमा मन का अंचल ॥९॥ दुष्प्रतिक्रान्त पूर्व सचित जो पाप कर्म हैं मेरे स्पष्ट ।
भोगे विना न मोक्ष भोगने पर ही ये सब होंगे नष्ट ॥१०॥ अथवा तीव्र तपस्या द्वारा पूर्व कर्म क्षय हो सकते।
मन्तिम अष्टादशम स्थान यह और श्लोक भी सुन सकते ॥११॥
१. नौका को पतवार।