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दशवाँ अध्ययन भिक्षु
+ जिन - शिक्षा से हो दीक्षित जिन-प्रवचन मे स्थिर - चित्त सही । स्त्री वशवर्ती हो न वान्त सुख फिर न ग्रहे जो भिक्षु वही ॥ १ ॥ भ खोदे न खुदाए, न पिए न पिलाए शीतोदक ही । निशित शस्त्र सम पावक न जलाए जलवाए भिक्षु वही ॥२॥
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हवा करे न कराए हरित कटाए काटे स्वयं नही । वीज विजित करे न भोगे जो सचित्त को भिक्षु वही ॥ ३ ॥ पृथ्वी तृण काष्ठाश्रित स्थावर - त्रस वध होता निश्चय ही ।
श्रतः पचन-पाचन, औद्देशिक प्रशन तजे जो भिक्षु वही ||४|| रोचित ज्ञात-पुत्र का माने षट् काया को निज सम ही ।
पंच महाव्रत पाले पंचाश्रव' रोके जो भिक्षु वही ॥५॥ चारं कषाय तजे ध्रुव योगी बुद्ध वचन में संतत ही । स्वर्ण रजत से रहित अघन गृहि-योग तजे जो भिक्षु वही ॥६॥ सम्यग्दृष्टि, अमूढ, ज्ञान तप संयम मे श्रद्धालु सही । तप से हरे पूर्व अघ मन वच तन संवृत जो भिक्षु वही ॥७॥ विविध अशन-पानक त्यों खाद्य-स्वाद्य को
कर संप्राप्त । कल, परसों हित उसे न संचित करे- कराए भिक्षु वही ॥ ८ ॥ विविध प्रश्न - पानकं त्यो खाद्य-स्वाद्य को कर सप्राप्त कहीं । साधर्मिक सह खाए फिर स्वाध्याय रक्त हो भिक्षु वही ||६|| विग्रहकारी कथा तजे कोपेन प्रशान्त जितेन्द्रिय ही ।
संयम मे ध्रुव योग अविहेठक' व अनाकुल भिक्षु वही ॥१०॥ जो सहता आक्रोश प्रहार तर्जना इन्द्रिय-कंटक ही । भीमशन्द-युत अट्टहास सहता सुख-दुख सम भिक्षु वही ॥ ११ ॥
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१ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु मोर श्रोत इन्द्रिय । २ जो दूसरो की तिरस्कृत नहीं करता । ३ नप्रिय शस्यादि ।