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अ० ६ : विनय-समाधि (च० उ०)
चतुर्विध है तप-समाधि कही स्थविर ने तद्यथा।
नही तप इहलोक या परलोक हित करता तथा ॥१२॥ कीर्तिवर्ण व शब्द श्लाघा अर्थ तप न करे मुनि ।
निर्जरा हित तप करे अन्यार्थ तजकर सद्गुणी ॥१३॥ यही अन्तिम तूर्य पद है श्लोक भी इस विषय का। ।
सुनो मुझसे है यहाँ इस भाँति विरचित स्थविर का ॥१४॥ नाना गुण तप-रक्त निराशक व निर्जरार्थी वह होता। ' तप से पूर्व पाप हरकर फिर तप-समाधि युत वह होता ॥१५॥ *चतुर्धा आचार की सुसमाधि निश्चय तद्यथा ।
नही अत्र-परत्र-हित आचार मुनिवर पालता ॥१६॥ कीर्ति वर्ण व शब्द श्लाघा, हित न पाले चरित को।
सिवा आहत-हेतु के पाले नही आचार को ॥१७॥ यही अन्तिम' तूर्य पद है श्लोक भी इस विषय का।
सुनो मुझसे है यहां इस भांति विरचित स्थविर का ॥१८॥ जिन बच रत अविवादी जो परिपूर्ण मोक्ष इच्छुक उत्कट।
वह आचार-समाधि सुसंवृत दान्त मोक्ष करता सुनिकट ॥१९॥ चार समाधि-स्वरूप समझ सुसमाहितात्म सुविशुद्ध महान। निज हित सुविपुल हित सुखकारी मोक्ष प्राप्त करता अम्लान ॥२०॥ गति चतुष्क को छोड़ सर्वथा जन्म-मरण से मुक्त बने। . , शाश्वत सिद्ध बने व महधिक देव स्वल्प रजयुक्त बने ॥२१॥