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दशवकालिक
सुविनयी सुर, असुर, गुह्यक का सुखी ससार है।
ऋद्धि-प्राप्त महायशस्वी दीखते हर बार है ।।११।। उपाध्याय व सुगुरु-सेवा वचन मे जो रक्त हैं।
सदा शिक्षा बढे उनकी यथा तरु जल-सिक्त है ॥१२॥ स्व-पर के उपभोग-हित, इस लोक मे जो हर्ष से।
सीखते नैपुण्य शिल्पादिक गृही उत्कर्ष से ॥१३॥ उसी कारण घोर वध, बन्धन व दारुण ताड़ना।
ललित-इन्द्रिय सभी शिक्षण-समय सहते शुभमना ॥१४॥ उन कलाओ के लिए वे पूजते गुरु को सदा।
. तुष्ट आज्ञा पालते सत्कार कर नमते मुदा ॥१५॥ क्या अधिक यदि शिष्य गुरु के वचन को माने सही। · श्रुतपरायण मोक्ष-इच्छुक गुरु वचन लांघे नही ॥१६॥ स्थान शय्याऽऽसन करे गुरुदेव से नीचे सदा। ', चले अनुपद हो कृताऽञ्जलि करे पद-वन्दन मुदा ॥१७॥ सुगुरु का तन या उपधि से स्पर्श हो तो नाथ हे |
खमे मुझ अपराध फिर न कभी करूंगा यों कहे ॥१८॥ बैल दुर्गत कशा-प्रेरित यथा रथ वहता अरे।
कार्य त्यो दुर्बुद्धि बारबार कहने पर करे ॥१९॥ (बुलाते आलापते बठा हुआ न सुने गिरा।
तज निंजासन धीर उत्तर दे उन्हे सुविनय भरा।) हेतुओ से काल इच्छा, जान फिर उपचार वर।।
तदनुकूल उपाय से गुरु-इष्ट कार्य करे प्रवर ॥२०॥ विपद है अविनीत के सुविनीत के सम्पत्ति है।
ज्ञात दोनो बात जिसको उसे शिक्षा-प्राप्ति है ॥२१॥