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________________ ४६ दशवकालिक सुविनयी सुर, असुर, गुह्यक का सुखी ससार है। ऋद्धि-प्राप्त महायशस्वी दीखते हर बार है ।।११।। उपाध्याय व सुगुरु-सेवा वचन मे जो रक्त हैं। सदा शिक्षा बढे उनकी यथा तरु जल-सिक्त है ॥१२॥ स्व-पर के उपभोग-हित, इस लोक मे जो हर्ष से। सीखते नैपुण्य शिल्पादिक गृही उत्कर्ष से ॥१३॥ उसी कारण घोर वध, बन्धन व दारुण ताड़ना। ललित-इन्द्रिय सभी शिक्षण-समय सहते शुभमना ॥१४॥ उन कलाओ के लिए वे पूजते गुरु को सदा। . तुष्ट आज्ञा पालते सत्कार कर नमते मुदा ॥१५॥ क्या अधिक यदि शिष्य गुरु के वचन को माने सही। · श्रुतपरायण मोक्ष-इच्छुक गुरु वचन लांघे नही ॥१६॥ स्थान शय्याऽऽसन करे गुरुदेव से नीचे सदा। ', चले अनुपद हो कृताऽञ्जलि करे पद-वन्दन मुदा ॥१७॥ सुगुरु का तन या उपधि से स्पर्श हो तो नाथ हे | खमे मुझ अपराध फिर न कभी करूंगा यों कहे ॥१८॥ बैल दुर्गत कशा-प्रेरित यथा रथ वहता अरे। कार्य त्यो दुर्बुद्धि बारबार कहने पर करे ॥१९॥ (बुलाते आलापते बठा हुआ न सुने गिरा। तज निंजासन धीर उत्तर दे उन्हे सुविनय भरा।) हेतुओ से काल इच्छा, जान फिर उपचार वर।। तदनुकूल उपाय से गुरु-इष्ट कार्य करे प्रवर ॥२०॥ विपद है अविनीत के सुविनीत के सम्पत्ति है। ज्ञात दोनो बात जिसको उसे शिक्षा-प्राप्ति है ॥२१॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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