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अ० ६ : विनय समाधि ( द्वि० उ० )
घी- श्री - गर्वी, चण्ड, साहसी' पिशुन, हीन प्रेपण' जो हो । विनय कोविद प्रसंविभागी धर्म यज्ञ को मोक्ष न हो ॥ २२ ॥
जो गीतार्थ व विनय - कुशल फिर गुरु निर्देशो पर चलते । दुस्तर भवोष तरते कर्म खपा, वे उत्तम गति वरते ॥ २३ ॥
१. बिना सोचे-समझे कार्य करनेवाला । २ गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन करने
बाला ।